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विक्रम और बेताल: प्रेम बनाम अधिकार भाग बारह

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: प्रेम बनाम अधिकार 

रात का गहरा सन्नाटा श्मशान की हवा में फैल चुका था, टिमटिमाती चिताओं से उठती हल्की राख और पेड़ों से गिरती सूखी पत्तियाँ उस माहौल की भयावहता को और बढ़ा रही थीं। राजा विक्रम अपने कंधे पर बेताल को उठाए बिना किसी डर या घबराहट के तांत्रिक की दिशा में बढ़ रहे थे। उनके कदमों में ठहराव नहीं था, मानो हर कठिनाई के साथ उनका संकल्प और मजबूत हो रहा हो। बेताल ने अचानक हँसते हुए कहा, “राजा विक्रम, तुम्हारी जिद वाकई कमाल की है, हर बार मुझे पकड़कर इस निर्जन स्थान से ले जाते हो, लेकिन हर बार अपने ही उत्तरों से मुझे मुक्त भी कर देते हो। क्या कभी तुम्हें यह ख्याल नहीं आता कि तुम्हारे प्रयास व्यर्थ हैं?” राजा शांत स्वर में बोले, “व्यर्थ केवल वो प्रयास होते हैं जो अधूरे छोड़ दिए जाते हैं, पर जो व्यक्ति वचन निभाता है, उसका हर कदम मायने रखता है।” बेताल मुस्कुराया और बोला, “ठीक है, मैं तुम्हें एक नई कहानी सुनाता हूँ जिसमें सच्चा प्रेम और अधिकार की भावना के बीच का अंतर छिपा है। यदि तुमने गलती की तो तुम हार जाओगे, और यदि सही उत्तर दिया तो मैं फिर उड़ जाऊँगा।”

बहुत समय पहले हिमालय की एक घाटी में शांतिप्रिय राज्य बसता था जिसका नाम था सोमपुरी। यह राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता, निर्मल झरनों, और सकारात्मक वातावरण के लिए जाना जाता था। इस राज्य के राजा का नाम था चंद्रवीर, जो समाज के लिए एक आदर्श शासक और पिता जैसे भाव से प्रजा की देखभाल करते थे। उन्हीं के परिवार में एक सुंदर और दयालु बेटी थी, राजकुमारी नंदिता, जो अपने पिता से भी ज्यादा दयालु, तेज और सहनशील थी। वह सबकी मदद करती, किसी की भावनाओं को आहत नहीं होने देती और राज्य की प्रजा उसे माँ की तरह मानती थी। नंदिता को बचपन से संगीत और प्रकृति से प्रेम था, और उसका मन रिश्तों में सम्मान और समर्पण को प्राथमिकता देता था।

उसी राज्य में एक योद्धा रहता था जिसका नाम था युवराज। वह अत्यंत कुशल, अनुशासित, परंतु भीतर से बहुत जज्बाती युवक था। उसने बचपन से ही राजकुमारी नंदिता के प्रति विशेष चाहत महसूस की थी। वह हमेशा सोचता था कि नंदिता केवल उसकी है, और कोई और उसके करीब आया तो वह इसे स्वीकार नहीं कर पाएगा। यह भावना प्रेम से ज्यादा अधिकार की ओर झुकी हुई थी। दूसरी ओर राज्य के दूसरे हिस्से में आम परिवार से ताल्लुक रखने वाला एक युवक रहता था जिसका नाम था विहार। वह सरल, ईमानदार, मेहनती और अपने स्वभाव में संतुलित था। उसने कभी नंदिता से सीधे बात नहीं की थी, पर उसकी बातों, व्यवहार और दयालुता से प्रभावित होकर Distance से उसकी इज्जत करता था। उसके मन में प्रेम था, पर बिना किसी अपेक्षा और बिना किसी अधिकार की भावना के।

एक दिन महल में एक विशाल उत्सव आयोजित हुआ जिसमें राज्य के कलाकार, विद्वान, व्यापारी और सैनिक शामिल हुए। उस दिन जनसभा में नंदिता ने अपने विचार साझा किए कि सच्चा प्रेम वह है जिसमें भावना हो, विश्वास हो, सम्मान हो, और आज़ादी हो, लेकिन अधिकार की जंजीर ना हो। यह बात सुनकर युवराज का चेहरा बदल गया, क्योंकि वह प्रेम को अधिकार मानकर चलता था। वहीं दूरी पर बैठे विहार के हृदय में यह बात गहराई तक उतर गई।

समय बीतता गया, और जल्द ही राज्य में घोषणा की गई कि राजकुमारी के विवाह के लिए एक चयन समारोह आयोजित किया जाएगा। यह समाचार सुनकर दोनों युवा तनाव में आ गए, पर अलग कारणों से। युवराज ने सोचा कि नंदिता को उसका होना ही पड़ेगा, क्योंकि बचपन से उसका मन यही कहता आया है। जबकि विहार ने सोचा कि नंदिता का निर्णय उसका अपना होगा, इसलिए उसे किसी प्रकार की छोटी बात या दबाव के कारण निर्णय नहीं लेना चाहिए।

राजा ने इस अवसर पर एक परीक्षा रखी जिसमें न केवल ताकत या बुद्धिमानी साबित करनी थी, बल्कि यह भी कि कौन नंदिता की भावनाओं और स्वतंत्रता का सम्मान करता है। पहली परीक्षा थी धैर्य की, दूसरी दया की, तीसरी त्याग की और चौथी स्वयं पर नियंत्रण की। युवराज ने ताकत और युद्धकला में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, लेकिन नई परीक्षाओं में वह उत्तेजित, अस्थिर और जल्दबाज़ हो गया। वहीं विहार ने न तो किसी से उलझने की कोशिश की, न प्रतिस्पर्धा में दूसरों को गिराने की, बल्कि हर चरण में संयम बनाए रखा। जब त्याग वाली परीक्षा का समय आया, तो युवराज ने कहा, “मैं साबित कर दूँगा कि नंदिता केवल मेरी है और किसी और की नहीं।” जबकि विहार ने कहा, “यदि उसे मेरे बिना जीवन अच्छा लगता है तो मुझे यही स्वीकार है, क्योंकि प्रेम मजबूरी नहीं, स्वतंत्रता है।”

अंतिम परीक्षा में राजा ने एक प्रश्न पूछा — “यदि किसी व्यक्ति के प्रेम का प्रतिफल उसे ना मिले, तो उसे क्या करना चाहिए?” युवराज ने उत्तेजना में कहा, “लड़कर, जीतकर, हर हाल में उसे पाना चाहिए।” वहीं विहार ने शांत स्वर में कहा, “यदि प्रेम सच्चा है तो व्यक्ति दूसरे की खुशी में अपनी खुशी ढूंढता है। सम्मान के बिना कोई भी रिश्ता जीवित नहीं रह सकता।”

राजा ने नंदिता की ओर देखा, और नंदिता ने कहा, “जो व्यक्ति मुझे अपने सुख का साधन माने वह प्रेमी नहीं, स्वार्थी है। पर जो मेरी स्वतंत्रता, सपनों और फैसलों का सम्मान करे वही मेरा सच्चा साथी है।”

राजा ने घोषणा की, “प्रेम कभी अधिकार नहीं, बल्कि स्वतंत्र भावना है। प्रेम फैसला नहीं थोपता, वह निर्णय को सम्मान के साथ स्वीकार करता है।” विहार को सम्मानपूर्वक जीवन साथी के रूप में स्वीकार किया गया, जबकि युवराज को आत्मचिंतन के लिए कुछ समय पर्वतीय ध्यान केंद्र भेजा गया।

अब बेताल बोला, “विक्रम, अब बताओ कि इस कहानी में सबसे सच्चा प्रेम किसका था? युवराज का, जिसने उसे पाना चाहा, या विहार का, जिसने उसे स्वतंत्र रखा, या नंदिता का, जिसने सम्मानपूर्ण प्रेम को चुना?” राजा ने कहा, “सबसे सच्चा प्रेम विहार का था, क्योंकि अधिकार की भावना से उपजा प्रेम आत्मा को कैद करता है, लेकिन सम्मान में जन्मा प्रेम जीवन को मुक्त करता है। नंदिता ने सही चुना और वही प्रेम की असली जीत है।” बेताल ने ठहाका लगाया और बोला, “विक्रम, तुम फिर सही निकले। अब मैं फिर उड़ जाता हूँ।”

शिक्षा: प्रेम का अर्थ अधिकार नहीं, बल्कि भावनाओं, स्वीकृति और स्वतंत्रता का सम्मान है।

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