विक्रम-और-बेताल-Vikram-and-Betal

विक्रम और बेताल: राजधर्म का न्याय भाग चौबीस

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: राजधर्म का न्याय

रात का सन्नाटा अपने चरम पर था। घने जंगल की पगडंडी पर राजा विक्रम सिंह एक बार फिर उस प्रेत—बेताल—को अपने कंधे पर उठाए श्मशान की ओर बढ़ रहे थे। पेड़ों की सरसराहट, दूर कहीं झिंगुरों की आवाज़ और हल्की ठंडी हवा उस यात्रा को और भी रहस्यमय बना रही थी। बेताल ने कुछ क्षण चुप रहकर विक्रम के स्थिर कदमों को देखा, फिर बोला, “राजा विक्रम, तुम हर बार मुझे पकड़ लाते हो, पर मैं फिर भी तुम्हें छोड़कर उड़ जाता हूँ। फिर भी तुम थकते नहीं। क्या राजधर्म इतना कठोर होता है?”

विक्रम ने बिना रुके जवाब दिया, “जो वचन दिया है, उसे निभाना ही सच्चा धर्म है। राजा हो या साधारण मनुष्य, वचन टूटे तो विश्वास भी टूटता है।”

बेताल हँसा और बोला, “तो सुनो, मैं तुम्हें आज ऐसी कथा सुनाता हूँ, जिसमें एक राजा को अपने ही प्रियजन के खिलाफ न्याय करना पड़ा। सोचकर बताना, उस स्थिति में सच्चा राजधर्म क्या था।”

कहकर बेताल ने कहानी शुरू की।

राजाओं का द्वंद्व और न्याय की परीक्षा

पुराने समय में उज्जैनी के समीप आनंदपुर नाम का एक समृद्ध राज्य था। वहाँ के राजा धर्मेश्वर अपनी न्यायप्रियता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। लोग कहते थे कि राजा का हृदय अत्यंत कोमल है लेकिन न्याय के मामले में चट्टान की तरह कठोर। उनके पास एक ही पुत्र था—राजकुमार नरेश—जो तेजस्वी, साहसी और जनता का प्रिय था।

एक दिन पड़ोसी राज्य के राजा विराटनाथ ने आनंदपुर पर हमला कर दिया। वह अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाना चाहता था। लेकिन उसे पता था कि आनंदपुर का सेनापति वीर और सजग है, इसलिए उसने योजना बनाकर हमला करने की जगह, भीतर ही भीतर गुप्तचरों को भेजकर राज्य में अशांति फैलाने की कोशिश की।

कुछ महीनों बाद युद्ध तो टल गया, पर एक दिन महल के बाहर एक घटना ने पूरे आनंदपुर को हिला दिया।

सुबह का समय था। राजदरबार में प्रवेश से ठीक पहले महल की सीढ़ियों पर राजा विराटनाथ का दूत मृत पाया गया। उसके शरीर पर तलवार का एक ही वार था, जो इतना सटीक था कि किसी अनुभवी योद्धा द्वारा ही लगाया गया होगा। आसपास किसी के कदमों के निशान नहीं थे, पर थोड़ी दूर से एक राजसी तलवार का कड़ा (धार का लोहे का घेरा) मिला।

राजकुमार नरेश की तलवार पर भी बिल्कुल वैसा ही कड़ा लगा था।

पूरा राजदरबार सन्न रह गया। सैनिकों ने तलवारें खींच लीं। मंत्री, प्रजा और सैनिकों में चर्चा होने लगी कि कहीं राजकुमार नरेश ने गुस्से में दूत को तो नहीं मार दिया? दूत के पास कुछ गुप्त दस्तावेज भी थे जो अब गायब थे।

राजा धर्मेश्वर के सामने यह एक कठिन क्षण था—एक ओर उनका राज्य, दूसरी ओर उनका इकलौता पुत्र।

अगले दिन राजा ने न्यायसभा बुलाई। सभा में भारी भीड़ थी। सबकी निगाहें राजकुमार पर थीं। राजा ने गंभीर स्वर में पूछा, “नरेश, क्या तुमने दूत की हत्या की है?”

राजकुमार शांत खड़ा था। उसने कहा, “पिताश्री, मैंने कोई हत्या नहीं की। मैं निर्दोष हूँ। लेकिन मेरे शब्द ही मेरा प्रमाण हैं। मेरे पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं जो मुझे निर्दोष सिद्ध कर सके।”

मंत्री बोले, “लेकिन जो कड़ा मिला है, वह केवल राजकुमार की तलवार का है।”

सैनिकों ने भी यही कहा कि ऐसी धार वाली तलवार का उपयोग पूरे राज्य में केवल राजघराने के लोग करते हैं।

राजा धर्मेश्वर कुछ क्षणों तक मौन रहे। फिर बोले, “न्याय का मार्ग कठिन होता है। यदि राजपुत्र दोषी है, तो उसे दंड मिलेगा। चाहे वह मेरा पुत्र ही क्यों न हो।”

उनकी आँखों में दर्द था, पर निर्णय में कठोरता भी।

इसी बीच, एक बूढ़ा सैनिक दौड़ता हुआ आया। वह वर्षों से राज्य में गुप्तचर का कार्य कर रहा था। उसने राजा के सामने आकर कहा, “महाराज, मैंने असली दोषी को देखा है। वह दूत को मारकर भाग रहा था। उसका कद, चाल और वस्त्र राजकुमार से मिलते-जुलते थे। लेकिन उसके कंधे पर एक पुराना घाव था। राजकुमार के शरीर पर ऐसा कोई घाव नहीं है।”

बूढ़े सैनिक ने बताया कि वह व्यक्ति विराटनाथ का जासूस था, जो राजकुमार का भेष बनाकर दूत को मारने आया था ताकि राज्य में विद्रोह हो सके।

लेकिन बूढ़े सैनिक के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था। सिर्फ उसकी देखी हुई बात।

राजा के सामने फिर dilemma खड़ा हो गया—किसकी गवाही पर विश्वास किया जाए?

राजा ने गहरी साँस लेकर कहा, “न्याय केवल प्रमाणों पर नहीं, सत्य के संकेतों पर भी आधारित होता है। राजकुमार का चरित्र, उसके शब्द, और बूढ़े सैनिक की सच्चाई… इन सबमें मुझे कोई छल नहीं दिखता। जब तक ठोस प्रमाण नहीं मिलते, मैं राजपुत्र को दोषी नहीं ठहरा सकता।”

राजा ने आदेश दिया कि मामले की फिर से जाँच होगी।

कुछ दिनों बाद दूसरे राज्य से एक व्यापारी आया, जिसने बताया कि उसने विराटनाथ के शिविर में उसी जासूस को देखा है, जिसके कंधे पर पुराना घाव था। व्यापारी की गवाही ने पूरे मामले को स्पष्ट कर दिया।

उस गद्दार को ढूंढकर न्याय के कटघरे में लाया गया और राजकुमार निर्दोष घोषित हुआ।

राज्य के लोग राजा की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा कि राजा ने अपने पुत्र को बचाने के लिए नहीं, बल्कि सत्य को बचाने के लिए न्याय किया। राजा धर्मेश्वर की प्रतिष्ठा दूर-दूर तक और बढ़ गई।

कथा समाप्त कर बेताल बोला, “अब बताओ विक्रम, राजा धर्मेश्वर ने क्या सच में राजधर्म निभाया? क्या बिना प्रमाण के अपने पुत्र को ‘निर्दोष’ मानना न्यायपूर्ण था?”

विक्रम ने तत्परता से कहा, “हां, उसने राजधर्म निभाया। क्योंकि न्याय सिर्फ कठोर नियमों पर नहीं, बल्कि सत्य की पहचान पर भी आधारित होता है। राजा ने पुत्र को इसलिए नहीं बचाया कि वह उसका बेटा था, बल्कि इसलिए कि उसके चरित्र, उसके स्वभाव और परिस्थितियों ने उसे निर्दोष दिखाया। उसने जांच दोबारा कराकर सत्य को स्थापित किया। यही सच्चा राजधर्म है—न पक्षपात, न जल्दबाज़ी।”

बेताल मुस्कुराया, “तुमने फिर से सही उत्तर दिया, राजा विक्रम। लेकिन अब मैं चलता हूँ।”

इतना कहकर बेताल हवा में उड़ गया।

विक्रम ने गहरी साँस ली और फिर दृढ़ कदमों से उसकी ओर बढ़ चले।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *