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सिंहासन बत्तीसी कथा 3 – चंद्रकला की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 3

सिंहासन बत्तीसी की तीसरी गुड़िया चंद्रकला की यह कहानी न्याय, पराक्रम, साहस और भाग्य के अद्भुत संगम को दर्शाती है। एक दिन सुबह-सुबह राजा भोज सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े ही थे कि तीसरी गुड़िया चंद्रकला अपने स्थान से निकलकर उनके सामने आ खड़ी हुई। उसने कहा कि वे जल्दबाज़ी न करें और पहले राजा विक्रमादित्य से जुड़ी एक महत्वपूर्ण कथा सुनें, तभी वे तय कर सकेंगे कि वे इस अद्भुत सिंहासन के योग्य हैं या नहीं।

चंद्रकला ने अपनी कथा आरम्भ की। एक समय मानसिक साहस और भाग्य के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। साहस का कहना था कि संसार में हर उपलब्धि परिश्रम से मिलती है, जबकि भाग्य का मानना था कि बिना सौभाग्य के कुछ भी संभव नहीं। यह विवाद इतना बढ़ गया कि वे दोनों देवताओं के राजा इंद्र के पास पहुंचे। इंद्र ने उनकी बात ध्यान से सुनी और समझ लिया कि सीधे निर्णय देने पर दोनों असंतुष्ट हो सकते हैं, इसलिए उन्होंने उन्हें राजा विक्रमादित्य के पास भेज दिया, जो न्यायप्रिय और बुद्धिमान शासक माने जाते थे।

राजा विक्रमादित्य ने भी दोनों के तर्क सुनकर निर्णय स्थगित कर दिया और छह महीने बाद आने को कहा। इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए उन्होंने प्रजा में सामान्य मनुष्य के रूप में रहने का निश्चय किया। शहरों में घूमते हुए उन्हें कोई समाधान नहीं मिला, इसलिए वे दूसरे नगर पहुँच गए। वहाँ एक व्यापारी के घर काम माँगा। जब उनसे उनकी योग्यता पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वे वह काम कर सकते हैं जो कोई अन्य नहीं कर सकता। व्यापारी इस उत्तर से प्रभावित हुआ और उन्हें अपना सेवक रख लिया।

कुछ समय बाद व्यापारी जहाज़ लेकर व्यापार यात्रा पर निकला और अपने सभी सेवकों को साथ ले गया। मध्य मार्ग में भयंकर तूफान आया। जहाज़ डगमगाने लगा, पर किसी तरह वे एक निर्जन द्वीप पर रुक सके। तूफान शांत होने के बाद जब जहाज़ का लंगर उठाने की कोशिश की गई तो कोई उसे हिला भी न सका। व्यापारी को विक्रमादित्य की बात याद आई और उन्होंने उन्हें प्रयास करने को कहा। विक्रमादित्य पानी में उतरे और भारी लंगर एक ही प्रयास में उठा लिया, परंतु जहाज़ तेज़ी से आगे बढ़ गया और वे उसी द्वीप पर छूट गए।

विक्रमादित्य उस द्वीप में आगे बढ़ते गए और वहाँ एक नगर दिखाई दिया। नगर के द्वार पर एक सूचना पत्र लगा था जिसमें लिखा था कि इस राज्य की राजकुमारी विवाह केवल राजा विक्रमादित्य से ही करेगी। यह देख वे चकित रह गए। जब वे महल पहुँचे तो राजकुमारी ने उनसे पहचान पूछी और उन्होंने अपना नाम बताया। राजकुमारी ने प्रसन्न होकर उनसे विवाह कर लिया। कुछ समय साथ बिताने के बाद विक्रमादित्य वापस उज्जैन लौटने के लिए चल पड़े।

रास्ते में नदी किनारे विश्राम करते समय उन्हें एक साधु मिला। विक्रमादित्य की पहचान जानकर साधु ने उन्हें दो वरदानस्वरूप वस्तुएँ दीं—एक पुष्पमाला और एक डंडा। माला पहनने वाले को सफलता प्राप्त होती है और वह अदृश्य भी हो सकता है। डंडे का गुण यह था कि रात में सोने से पहले यदि उससे कुछ माँगा जाए तो वह वस्तु मिल जाती है। विक्रमादित्य ने साधु का आभार व्यक्त किया और वापस उज्जैन लौट आए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने सैनिकों से राजकुमारी को लाने का संदेश भेजा।

फिर वे अपने उपवन में घूमने गए जहाँ दो व्यक्ति मिले—एक ब्राह्मण और एक किसान। दोनों ने बताया कि वे वर्षों से उपवन की सेवा कर रहे हैं और कुछ पुरस्कार की आशा रखते हैं। वे अत्यंत गरीब और परेशान थे। विक्रमादित्य ने उनके दुःख को समझा। उनके पास उस समय देने को कुछ नहीं था, इसलिए उन्हें साधु द्वारा दी गई माला और डंडा दे दिया और उनके गुण भी समझा दिए। विक्रमादित्य यह सोचकर प्रसन्न हुए कि उन्हें यह वरदान भाग्य से मिला, पर ब्राह्मण और किसान ने इन्हें अपने कठोर परिश्रम और साहस के कारण पाया।

छह महीने पूर्ण होने पर साहस और भाग्य निर्णय लेने आए। राजा विक्रमादित्य ने उन्हें बताया कि संसार में सफलता पाने के लिए कठोर परिश्रम और मानसिक साहस अत्यंत आवश्यक है, परंतु केवल साहस ही पर्याप्त नहीं। भाग्य भी उतना ही आवश्यक है, क्योंकि भाग्य से ही व्यक्ति उन वस्तुओं को प्राप्त करता है जो परिश्रम से भी न मिल पाती हों। दोनों एक-दूसरे के सहायक और पूरक हैं। उन्होंने अपनी यात्रा और माला–डंडे की घटना सुनाकर समझाया कि साहस और भाग्य साथ मिलकर ही महान फल देते हैं।

साहस और भाग्य दोनों राजा के न्यायपूर्ण निर्णय से संतुष्ट होकर वहाँ से चले गए। चंद्रकला ने कथा समाप्त करते हुए राजा भोज से पूछा कि क्या वे भी उतने ही न्यायप्रिय, बुद्धिमान और उदार हैं जितने राजा विक्रमादित्य थे। यदि हाँ, तभी वे इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं। यह कहकर वह वापस अपने स्थान पर लौट गई और राजा भोज उदास मन से महल वापस चले गए।

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