सिंहासन बत्तीसी कथा 21
अगली सुबह जब राजा भोज पुनः उस दिव्य सिंहासन पर बैठने का प्रयत्न करने लगे, तो उसी क्षण उनके सामने इक्कीसवीं पुतली चंद्रज्योति प्रकट हुई। वह चमकती हुई रौशनी की तरह उनके सम्मुख अवतरित हुई और मनोहर स्वर में बोली कि वह विक्रमादित्य के पवित्र और शक्तिमान सिंहासन की इक्कीसवीं पुतली है। उसने राजा भोज की ओर देखकर कहा कि यदि उन्हें इस सिंहासन पर विराजने का सौभाग्य प्राप्त करना है, तो पहले उन्हें यह समझना होगा कि विक्रमादित्य केवल राजा ही नहीं थे, बल्कि पराक्रम, करुणा, त्याग और धर्मनिष्ठा के अद्वितीय प्रतीक थे। इस बात को सिद्ध करने के लिए उसने उनसे आग्रह किया कि वे पहले उसकी कही कथा सुनें और उसके पश्चात स्वयं यह निर्णय करें कि क्या वे सचमुच इस आसन पर बैठने योग्य हैं या नहीं।
चंद्रज्योति ने कथा का आरंभ किया और बताया कि यह घटना उस समय की है जब विक्रमादित्य अपने राज्य के लोगों के कल्याण के लिए एक भव्य महायज्ञ करने का विचार कर रहे थे। वे अपने मंत्रियों, पुरोहितों और अन्य प्रमुख व्यक्तियों के साथ सभा में बैठे हुए यज्ञ की विधि-विधान पर चर्चा कर रहे थे। तभी एक सेवक आया और उसने सूचित किया कि किसी मंत्री का नौकर उनसे मिलने की इच्छा रखता है। मंत्री ने अनुमति लेकर अपने नौकर से भेंट की और लौटकर अत्यंत व्याकुल और उदास हो गया। राजा ने उसकी व्याकुलता देखकर उससे पूछा कि क्या बात है, तो मंत्री ने उत्तर दिया कि उसकी पत्नी ने उसे किसी अत्यंत आवश्यक कार्य के लिए बुलाया है, इसलिए उसे तुरंत घर जाना पड़ेगा। राजा ने उसे जाने की अनुमति तो दे दी, पर उसके उत्तर में छिपी असत्यता ने उन्हें बेचैन कर दिया।
उन्होंने तुरंत उस मंत्री के नौकर को बुलाया और उसके मुख से सच्चाई जाननी चाही। नौकर ने संकोचपूर्वक बताया कि मंत्री की इकलौती पुत्री सुलक्षणा कई वर्षों से एक रहस्यमय बीमारी से पीड़ित है और किसी वैद्य की औषधि से उसे राहत नहीं मिल रही है। उसकी हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और अब वह मृत्यु-शय्या पर पहुँच चुकी है। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य अत्यंत दुखी हो उठे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि मंत्री ने इतनी बड़ी बात इसलिए छिपाई ताकि महायज्ञ की तैयारियों में कोई बाधा न आए। इस त्याग और कर्तव्यनिष्ठा से राजा का हृदय भावुक हो गया।
उन्होंने तुरंत राजवैद्य को बुलाया और पूछा कि क्या वह सुलक्षणा का उपचार कर रहा है। राजवैद्य ने बताया कि उसने पूरी निष्ठा से उपचार किया, पर बीमारी का कारण समझ में ही नहीं आता। उसने यह भी स्वीकार किया कि कई अन्य विद्वान वैद्य बुलाए गए, पर कोई भी उसकी व्याधि का रहस्य समझने में सफल नहीं हो पाया। अंत में वैद्य ने कहा कि अब केवल एक ही उपाय शेष है—ख्वांग नामक दुर्लभ औषधि, जिसका वर्णन उसे एक तपस्वी ने कभी किया था। यह औषधि ऐसी अद्भुत है कि किसी भी अज्ञात रोग का निवारण कर देती है, परंतु दुख की बात यह है कि यह नील रत्नगिरि पर्वतों की अत्यंत खतरनाक और गहरी घाटियों में मिलती है जहाँ पहुँच पाना लगभग असंभव है। वहाँ हिंसक सिंह, विषैले सर्प, विशाल अजगर और अनेक घातक जीव बसे हुए हैं।
विक्रमादित्य ने औषधि की पहचान पूछी, तो वैद्य ने कहा कि यह आधी नीली और आधी पीली काँटेदार झाड़ी की तरह होती है और उसकी पत्तियाँ स्पर्श होते ही झुक जाती हैं। यह विवरण सुनते ही विक्रमादित्य ने बिना समय गँवाए अपने विश्वासी बेटालों को आदेश दिया कि वे उन्हें तुरंत नील रत्नगिरि पहुँचाएँ। कुछ ही क्षणों में वे उन भयानक पर्वतों की घाटियों में उतार दिए गए।
जहाँ तक दृष्टि जाती, वहाँ घना अंधेरा, डरावनी गर्जनाएँ और असंख्य विषैले प्राणी थे। परंतु राजा अदम्य साहस से भरे हुए थे। अचानक एक हिंसक सिंह उन पर झपटा, पर विक्रमादित्य ने अपनी तलवार की एक ही वार में उसे परास्त कर दिया। उसके बाद मार्ग में कई जहरीले सर्प मिले जो फुफकारते हुए रास्ता रोकने लगे, पर राजा ने पत्थरों से उन्हें दूर भगा दिया। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, घाटी और भी भयानक होती चली गई। तभी पीछे से एक विशालकाय काला अजगर तेजी से उन पर टूट पड़ा और उन्हें पूरा निगल गया। पर विक्रमादित्य विचलित होने वाले नहीं थे। उन्होंने भीतर से ही अपनी तलवार निकाली और अजगर का पेट फाड़कर बाहर निकल आए। वे खून से लथपथ थे पर उनका साहस अडिग था।
रात का अंधेरा उतरने लगा, इसलिए उन्होंने एक ऊँचे पेड़ पर चढ़कर रात बिताने का निर्णय लिया, क्योंकि इस खतरनाक घाटी में रात में चलना मृत्यु निमंत्रण के समान था। अगले दिन सुबह होते ही वे पुनः औषधि की खोज में निकल पड़े, पर पूरा दिन घूमने पर भी उन्हें ख्वांग की एक भी झाड़ी नहीं मिली। फिर उन्होंने सोचा कि यदि चंद्रमा निकल आए तो उसकी चाँदनी में उस अद्भुत औषधि को पहचानना सरल होगा। जैसे ही यह विचार उन्होंने मन में लाया, संयोगवश पूर्णिमा का चमकता चाँद घाटी पर अपनी उजली किरणें बिखेरने लगा।
चाँदनी में दूर कहीं नीले और पीले रंग की छोटी-छोटी झाड़ियाँ चमकती दिखाई पड़ीं। विक्रमादित्य ने हर्ष से छलाँग लगाई और उत्साह में वहाँ पहुँचे। किंतु देखा कि उन झाड़ियों के चारों ओर अनगिनत विषैले बिच्छू फैले हुए हैं। उन्होंने तलवार के वारों से रास्ता साफ किया और बड़ी कठिनाई से कई झाड़ियाँ तोड़कर औषधि एकत्र की। लौटते समय उन्होंने चंद्रदेव की ओर देखकर कृतज्ञता प्रकट की। तभी चंद्रदेव साक्षात उनके सामने प्रकट हुए और बोले कि वे राजा के पराक्रम और प्रजा के प्रति प्रेम से अत्यंत प्रसन्न हैं। उन्होंने कहा कि अब औषधि की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सुलक्षणा की मृत्यु हो चुकी है, पर वे राजा को दिव्य अमृत दे रहे हैं जिसकी कुछ बूँदें उसके मुख में डालने से वह पुनर्जीवित हो जाएगी।
राजा ने श्रद्धापूर्वक अमृत लिया और शीघ्र ही उज्जैन लौट आए। मंत्री के घर में शोक पसरा हुआ था, पर उन्होंने अमृत की कुछ बूँदें सुलक्षणा के मुख में टपका दीं। देखते ही देखते उस मृतप्राय बालिका ने आँखें खोल दीं। वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए और राजा के चरणों में कृतज्ञता से झुक गए।
कथा समाप्त कर चंद्रज्योति ने राजा भोज से पूछा कि क्या उन्होंने अपनी प्रजा के लिए कभी ऐसा जोखिम, ऐसा त्याग और ऐसा प्रेम दिखाया है। यदि हाँ, तभी वे इस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं, अन्यथा उन्हें लौट जाना चाहिए। यह सुनकर राजा भोज अत्यंत निराश हो गए और भारी मन से अपने महल लौट आए।