विक्रम और बेताल: जीवन का प्रतिफल
रात अत्यन्त अँधेरी थी। बीच-बीच में तेज़ बारिश की धाराएँ गिरतीं और फिर अचानक रुक जातीं। हवा के तेज़ झोंके पेड़ों को इस तरह हिलाते मानो वे किसी अदृश्य शक्ति के आगे काँप रहे हों। अजीब-अजीब सी आवाज़ें, दूर कहीं सियारों की करुण चीत्कार, और बीच-बीच में गड़गड़ाहट की धमक वातावरण को और भी भयावह बना रही थी। बिजली की चमक के साथ परछाइयों में उभरते विचित्र चेहरे मानो किसी अज्ञात संसार से आए हुए प्रतीत होते। लगता था जैसे आसपास कोई अदृश्य शक्तियाँ मद्धिम अट्टहास कर रही हों।
लेकिन इस विचित्र और डरावने वातावरण के बावजूद राजा विक्रमादित्य का मन न डगमगाया, न तन काँप उठा। उन्होंने बिना रुके उस प्राचीन वृक्ष पर चढ़कर शव को उतारा और कंधे पर लादकर श्मशान भूमि की ओर चल पड़े। पूरा क्षेत्र सुनसान था, हवाएँ तेज़ थीं, और रात की रहस्यमयी नीरवता अजीब खामोशी के साथ उनकी यात्रा को और कठिन बना रही थी।
तभी उस शव में बसने वाले बेताल ने धीमे स्वर में कहा, राजा, मुझे तुम पर दया आती है। तुम बिना विश्राम किए इस तरह मुझे पकड़ने आते हो, मानो तुम्हें किसी महान लक्ष्य को प्राप्त करना हो। लोग जहाँ आरामदायक बिस्तर पर नींद का आनंद लेते हैं, तुम वहाँ इस अंधेरी रात में मेरे पीछे भटकते फिरते हो। तुम्हारा यह हठ किसी दिन तुम्हें खुद ही संकट में डाल देगा। यदि तुम मेरी कथा सुन लो, तो समझ जाओगे कि यह सारा प्रयास व्यर्थ है। इतना कहकर बेताल ने अपनी कहानी आरंभ की।
बहुत समय पहले कंचननगर नामक राज्य पर राजा चंद्रदीप का शासन था। राजा की एकमात्र पुत्री इंदुमती थी। वह पति-पत्नी की इकलौती संतान थी, इसलिए बचपन से ही उसे लड़के की तरह पाला गया। उसे हथियार चलाने, घुड़सवारी, युद्ध-कौशल—सब सिखाया गया। क्योंकि वह राज्य की उत्तराधिकारी थी, इसलिए यह निश्चित था कि उससे विवाह करने वाला व्यक्ति कंचननगर का अगला शासक बनेगा। यही कारण था कि पड़ोसी राज्यों के अनेक राजकुमार उससे विवाह करने की इच्छा रखते थे।
इंदुमती सौंदर्य में अनुपम थी, परंतु जब भी राजा उसके विवाह की बात उठाते, वह स्पष्ट उत्तर न देती। एक दिन जब राजा ने फिर वही चर्चा की, तो उसने कहा, पिता, मैं विवाह के लिए तैयार हूँ, पर एक शर्त है। राजा चकित होकर उसकी ओर देखने लगे। इंदुमती ने कहा, जो भी मुझसे विवाह करना चाहे, उसे मेरी परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। वह परीक्षा कठिन भी होगी और खतरनाक भी।
राजा यह सुनते ही चिंतित हो उठे। उन्होंने उसे समझाया कि ऐसी परीक्षाएँ कोई नहीं देगा। लोग अपने प्राणों से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करते। लेकिन इंदुमती ने आत्मविश्वास से कहा, पिता, जो मेरी जान से ज्यादा परवाह करते हैं, वे अवश्य आएँगे। आप केवल देखिए।
राजा ने मंत्रियों से विचार-विमर्श किया। प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया कि यदि राजकुमारी परीक्षा पर अड़ी है, तो परीक्षा रखी जाए, पर उसकी प्रकृति का विवरण सार्वजनिक रूप से न बताया जाए। यह बात केवल परीक्षा स्थल पर ही स्पष्ट होगी। राजा ने इस सलाह को स्वीकार किया।
जब परीक्षा की घोषणा दूर-दूर तक फैली, तब जय नगर नामक राज्य में कुरुप्षण नाम का एक युवक भी यह सूचना सुनता है। उसका जन्म दोनों हाथों के बिना या अत्यन्त छोटे हाथों के साथ हुआ था। जन्म के बाद ही उसकी माँ का निधन हो गया था और उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। उसकी सौतेली माँ उसे कुरूप समझकर कुरुप्षण कहती थी। वह न तो उसे प्यार देती, न ही भोजन पर्याप्त मात्रा में। उसके लिए वह बोझ से अधिक कुछ न था।
कुरुप्षण कभी शिकायत न करता, लेकिन मन ही मन दुखी रहता। वह सोचता, माँ हमेशा डाँटती रहती है। क्या जीवन में कभी ऐसा समय आएगा जब मैं उसे दिखा सकूँ कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ? लोग चाहते हैं कि मैं मर जाऊँ, लेकिन मैं उन्हें दिखाऊँगा कि मैं जीवन का सामना कर सकता हूँ।
इसी दृढ़ निश्चय के साथ वह कंचननगर पहुँच गया। वहाँ कई राजकुमार और अन्य महत्वाकांक्षी युवक परीक्षा की प्रतीक्षा में एकत्र थे। सभी अंदाज़ा लगा रहे थे कि शायद परीक्षा कुश्ती की हो, धनुर्विद्या की, या युद्ध-कला की।
आखिर वह समय आया जब परीक्षा की घोषणा की जानी थी। राजा, राजकुमारी और प्रधानमंत्री मंच पर बैठे। प्रधानमंत्री ने कहा, परीक्षा अब आरंभ होगी। सामने जो दीवार है, उसे पार करके आपको नीचे स्थित तीन-स्तरीय धारदार चाकुओं की संरचना में कूदना होगा। इस प्रकार कि आपके शरीर पर एक खरोंच तक न आए। जो यह कर लेगा, वह राजकुमारी का वर चुना जाएगा।
राजकुमार यह सुनते ही स्तब्ध रह गए। वे दीवार के पास गए, नीचे झाँका, और तुरंत लौट आए। दीवार बहुत ऊँची थी, चाकुओं के बीच स्थान अत्यन्त कम था। बिना चोट लगे उतर पाना लगभग असंभव था। सभी ने परीक्षा का विरोध किया। कुछ ने क्रोध में कहा, यह राजकुमारी पागल है जो ऐसी परीक्षा रख रही है। कौन इसके लिए अपना जीवन देगा?
राजा अत्यन्त चिंतित थे। उन्हें पश्चाताप था कि उन्होंने इंदुमती की बात मान ली। उसी समय कुरुप्षण, जो एक ओर चुपचाप बैठा था, सोचने लगा—मेरी मौत की कामना तो वैसे भी लोग करते हैं। यदि मैं सफल हुआ, तो मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। यदि मरा, तो कोई शोक नहीं मनाएगा।
वह राजा के पास पहुँचा और बोला, महाराज, क्या मुझे परीक्षा देने की अनुमति मिलेगी?
राजा और राजकुमारी दोनों हैरान रह गए। इंदुमती के भीतर द्वंद्व शुरू हो गया कि यदि यह युवक सफल हो गया, तो उसे इसी से विवाह करना पड़ेगा। लेकिन वह सोच रही थी कि यह युवक दीवार पर चढ़ भी कैसे पाएगा, और कूदेगा कैसे? वह मान चुकी थी कि यह युवक निश्चय ही मारा जाएगा।
फिर भी राजा ने अनुमति दे दी।
कुरुप्षण सैनिकों की सहायता से दीवार पर चढ़ा और नीचे की ओर देखा। फिर उसने बिना किसी झिझक के छलांग लगा दी। वह बगैर चोट खाए चाकुओं के बीच उतर गया। दर्शकों में जयकार उठी।
जब उसे बाहर निकाला गया और वह राजा एवं इंदुमती के सामने पहुँचा, तो दोनों के चेहरे पर भय और दुविधा स्पष्ट थी। कुरुप्षण ने उनकी स्थिति समझ ली और बोला, महाराज, चिंता न करें। मेरा उद्देश्य विवाह करना नहीं था। मैं केवल यह सिद्ध करना चाहता था कि मैं भी जीवन का सामना कर सकता हूँ। यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा प्रतिफल है। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है।
कहानी समाप्त कर बेताल बोला, हे राजा, क्या कुरुप्षण मूर्ख था? यदि विवाह का इरादा नहीं था, तो वह परीक्षा देने क्यों आया? और जीतकर भी उसने विवाह क्यों ठुकराया? यदि तुम्हें उत्तर ज्ञात है, और तुमने उसे न बताया, तो तुम्हारा सिर फट जाएगा।
राजा विक्रम बोले, नहीं, कुरुप्षण मूर्ख नहीं था। वह जानता था कि उसके हाथ न होने के कारण वह राजा बनकर प्रजा का कल्याण नहीं कर सकता। वह तलवार भी नहीं उठा सकता था। उसका उद्देश्य केवल अपनी योग्यता सिद्ध करना था, ताकि उसकी सौतेली माँ और समाज जान सके कि जहाँ सामान्य लोग असफल हुए, वहाँ वह सफल हुआ। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार था। उसने बुद्धिमानी से निर्णय लिया कि वह राजकुमारी को अनचाहे बंधन में न बाँधे। इसलिए उसने विवाह का अधिकार त्याग दिया।
बेताल राजा का उत्तर सुनते ही फिर से हवा में विलीन हो गया और शव के साथ उसी वृक्ष पर जा लटका।
विक्रमादित्य ने तलवार उठाई और पुनः बेताल के पीछे चल पड़े।