गिलहरी की पीठ पर धारियाँ कैसे आईं
एक समय की बात है, हनुमान लंका से लौटे थे। उन्होंने वहाँ माता सीता को दुखी अवस्था में देखा था और उसी का समाचार प्रभु श्रीराम को दिया। यह सुनते ही श्रीराम ने विलम्ब न करते हुए रावण की नगरी लंका जाने की तैयारी की और रामेश्वरम से प्रस्थान किया। मार्ग में उनके सामने विशाल सागर आया, जो भारत भूभाग और लंका के बीच फैला हुआ था।
श्रीराम ने समुद्र के देवता से विनयपूर्वक प्रार्थना की कि वे उनके वानर-सेना सहित पार होने का मार्ग दें। तीन दिन और तीन रातें बीत गईं, परंतु समुद्र शांत ही रहा। जब श्रीराम ने अपनी सेना का उत्साह क्षीण होते देखा, तो उन्होंने क्रोध से समुद्र पर अनेक बाण चलाए। यह देखकर समुद्र के देवता जाग उठे। वे हाथ जोड़कर आए और श्रीराम से क्षमा माँगी। उन्होंने बताया कि नल और नीला, जो वानर-सेना में ही दिव्य शिल्पी हैं, उनके द्वारा सागर पर एक सेतु बनाया जा सकता है। इसी घटना के कारण श्रीराम को “सेतुराम” कहा गया।
इसके बाद वानर-सेना के प्रमुख योद्धा—हनुमान, जाम्बवान, नल, नीला, अंगद और सुग्रीव—सभी सेतु-निर्माण में लग गए। निकट के पर्वतों को तोड़कर बड़े-बड़े शिलाखंड लाए गए और उन विशाल शिलाओं को समुद्र में फेंका जाने लगा। पूरा तट वानरों के परिश्रम से गूँज उठा था। वे उन महान पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर लंका तक पहुँचने का मार्ग बना रहे थे।
उसी समय एक छोटी-सी गिलहरी वहाँ यह सब देख रही थी। उसने श्रीराम का दर्शन किया और उसके मन में प्रभु की सेवा की तीव्र इच्छा जागी। वह सोचने लगी कि इतने महान कार्य में उसका छोटा-सा योगदान क्या हो सकता है। परंतु भक्ति में संकल्प ही प्रधान होता है। अतः उसने छोटे-छोटे कंकड़, बालू और मिट्टी को अपनी पीठ पर भरना प्रारंभ किया और वानरों द्वारा रखे गए बड़े पत्थरों के बीच की दरारों को भरने लगी, जिससे श्रीराम के चरणों को किसी प्रकार की पीड़ा न हो।
गिलहरी की यह विनीत सेवा प्रभु की दृष्टि से छिपी न रही। श्रीराम ने उसे देखा और उसके सरल प्रयास से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे अपने करों में उठा लिया और अत्यंत स्नेहपूर्वक उसकी पीठ पर अपने पवित्र उँगलियों से स्पर्श किया।
गिलहरी का शरीर पहले पूरी तरह धूमिल-धूसर था। परंतु जैसे ही प्रभु के करों का स्पर्श उसकी पीठ पर पड़ा, उसी क्षण उसके शरीर पर तीन-चार उजली रेखाएँ उभर आईं। यह प्रभु के स्पर्श का दिव्य चिह्न था, जो कालांतर में सभी गिलहरियों में स्थायी रूप से दिखाई देने लगा।
इस प्रकार आज भी हम जो गिलहरियाँ देखते हैं, उनकी पीठ पर धूसर रंग के साथ उजली धारियाँ इसी पावन घटना की स्मृति हैं।
गिलहरी का यह छोटा-सा परंतु हृदयपूर्ण प्रयास सिद्ध करता है कि ईश्वर की सेवा में किसी का आकार, बल या सामर्थ्य महत्व नहीं रखता। जिसका मन निर्मल हो और जिसका संकल्प सच्चा हो, वह ईश्वर के कार्य में अपना योगदान अवश्य दे सकता है। श्रीराम ने दिखा दिया कि भक्ति में बड़ा और छोटा कुछ नहीं होता—निष्ठा ही सर्वाधिक मूल्यवान है।
शिक्षा: ईश्वर-सेवा में समर्पण और सज्जन भावना ही सच्चे आशीर्वाद का कारण बनते हैं।