राजा-योगी-की-परीक्षा---King-Janaka

राजा योगी की परीक्षा – King Janaka

नैतिक कहानियाँ

राजा योगी की परीक्षा

राजा जनक दूर-दूर तक एक “राजा योगी” के रूप में विख्यात थे। इसका अर्थ था कि वे एक साथ ही एक सम्राट और एक संत थे। उनके पास भौतिक सम्पदा का अकूत भंडार था, किंतु वे स्वयं को उनका स्वामी नहीं मानते थे और न ही उनकी उपस्थिति इन साधनों पर आश्रित थी।

राज्य के कार्यों में व्यस्त न होने पर वे सदैव दिव्य चिंतन में लीन रहते। उनकी प्रार्थनापूर्ण और दैवीय प्रकृति के कारण उनके निर्णय न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होते। उनकी प्रजा अपने शासक से अत्यंत प्रसन्न थी।

एक दिन गेरुआ वस्त्र धारण किए एक संत उनके राज्य में पहुँचे। उन्होंने सुना था कि राजा जनक एक राजा योगी हैं। वे चमक-दमक से भरे राजमहल के बाहर खड़े हुए और सोचने लगे कि जो व्यक्ति ऐसे महल का स्वामी है और उसमें रहता है, उसे योगी या संत कैसे कहा जा सकता है? उन्होंने राजा जनक से भेंट की और प्रश्न किया। राजा ने उस समय कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि अतिथि का सम्मान करते हुए महल के भीतर ही एक आरामदायक कक्ष उन्हें ठहरने के लिए दिया।

कुछ दिन बाद की बात है, जब संत और राजा जनक दोनों गहरी नींद में सो रहे थे, तभी महल में भयंकर आग लग गई। सभी सैनिक स्थान छोड़कर भाग खड़े हुए। संत महल से बाहर भागे, न केवल अपने प्राण बचाने के लिए, बल्कि अपने उन दो गेरुआ वस्त्रों को सुरक्षित करने के लिए भी, जिन्हें उन्होंने धोकर महल के बाहर सुखाए थे।

शीघ्र ही आग पर काबू पा लिया गया और स्वाभाविक रूप से सभी राजा जनक को ढूँढने लगे, जो कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। अंततः राजा को उनके कक्ष में ध्यानमग्न और प्रार्थनापूर्ण अवस्था में पाया गया, जो आग से आधा जल चुका था। संत ने पूछा कि आग लगने पर राजा महल से बाहर क्यों नहीं भागे? इस प्रश्न के उत्तर में बुद्धिमान राजा ने कहा, “जो वास्तव में मेरा है, उसे ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी छीन नहीं सकता।”

तब संत के लिए बात स्पष्ट हो गई कि राजा अपनी आत्मा (आत्मा) की ओर संकेत कर रहे थे। इससे संत विनम्र हो गए और उन्हें एहसास हुआ कि राजा जनक को ही राजा योगी क्यों कहा जाता है, जबकि वे स्वयं तो एक साधारण मनुष्य थे, जो अपने प्राण और वस्त्र की रक्षा के लिए भाग खड़े हुए।

शिक्षा: इस कथा से हमें शिक्षा मिलती है कि हम मनुष्यों को अपने चारों ओर की सदैव परिवर्तनशील और नश्वर वस्तुओं (क्षर) के बारे में चिंता न करके, सदैव अपने ऊपर विद्यमान परमात्मा (पुरुषोत्तम) तक पहुँचने के प्रयास में गहराई से लगे रहना चाहिए। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता ने हमें सिखाया है, हमारी आत्मा ही अविनाशी (अक्षर) है। शस्त्र उसे काट नहीं सकते, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे भिगो नहीं सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *