सिंहासन बत्तीसी कथा 1
एक सुंदर गुड़िया अचानक तेज़ प्रकाश से घिरी और कुछ ही क्षणों में वह एक दिव्य और तेजस्वी स्त्री में बदल गई। उसके चेहरे पर अद्भुत चमक थी। वह मधुर पर दृढ़ स्वर में बोली,
“राजा भोज, मैं रत्नमंजरी हूँ। हम इसलिए हँसे क्योंकि आप उस महान राजा जैसे नहीं हैं, जो कभी इस अद्भुत सिंहासन पर बैठा करता था। आप निस्संदेह बुद्धिमान, उदार और बलशाली हैं, लेकिन विक्रमादित्य जैसा कोई नहीं था। अब मैं आपको उसकी एक कथा सुनाऊँगी। उसके बाद आप स्वयं निर्णय करें कि क्या आप इस सिंहासन के योग्य हैं या नहीं।”
रत्नमंजरी ने कथा कहना प्रारम्भ किया।
बहुत समय पहले आर्यावर्त में अम्बावती नामक एक विशाल, समृद्ध और सुन्दर नगर था। इस नगर के राजा थे गंधर्वसेन। वे विचारों से उदार और परम्पराओं से परे थे। वे वर्ण-भेद में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—चारों वर्णों की स्त्रियों से विवाह किया।
राजा की ब्राह्मणी रानी से एक विद्वान पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीति रखा गया। क्षत्रिय रानी ने तीन पराक्रमी पुत्रों—शंख, विक्रमादित्य और भरथरी—को जन्म दिया। वैश्य रानी का पुत्र चंद्र कहलाया और शूद्रा रानी ने धन्वंतरी नामक बालक को जन्म दिया।
समय बीतता गया। ब्राह्मणीति बड़ा होकर विद्या और नीति में निपुण हो गया। राजा गंधर्वसेन ने उसे अपना प्रधान मंत्री बना दिया। लेकिन एक समय राज्य में अराजकता फैल गई और वह समस्या का समाधान न कर सका, इसलिए उसने मान–अपमान के भय से राज्य छोड़ दिया।
वह वर्षों तक भटकता रहा और अंततः धारा नामक नगर पहुँचा—वह नगर जहाँ कभी उसके पूर्वज शासन करते थे। वहाँ उसकी विद्या और दक्षता देखकर उसे दरबार में उच्च पद मिला। लेकिन उसके मन में राज्य प्राप्ति की आग अभी भी शांत नहीं हुई थी। अवसर मिलते ही उसने धारा के राजा की हत्या कर सिंहासन हड़प लिया। कुछ समय बाद वह अपने मूल नगर उज्जैन लौटने चला, परंतु वहाँ पहुँचते ही उसका निधन हो गया।
इधर, उज्जैन में शंख को यह भय सताता रहता था कि राजा उसके छोटे भाई विक्रमादित्य को अपना उत्तराधिकारी बना सकते हैं। इस भय ने उसे अंधा कर दिया। एक दिन उसने अपने ही पिता की हत्या कर दी और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया।
जब उसके छोटे भाइयों—विक्रमादित्य, भरथरी, चंद्र और धन्वंतरी—को यह भयानक समाचार मिला, उनका हृदय क्रोध और दुःख से भर गया। वे जान बचाकर नगर छोड़कर भागने लगे, परंतु शंख ने सैनिकों को आदेश दिया कि उन्हें किसी भी हालत में जीवित न छोड़ा जाए। सैनिकों ने भरथरी, चंद्र और धन्वंतरी को मार डाला, लेकिन असाधारण बुद्धि और साहस के कारण विक्रमादित्य बच निकले।
शंख को अच्छी तरह पता था कि विक्रमादित्य एक दिन लौटेंगे और अपना व अपने भाइयों का बदला लेंगे। इसलिए उसने प्रसिद्ध ज्योतिषियों और ज्योतिषाचार्यों को बुलाकर उनसे विक्रमादित्य का पता लगाने को कहा। सबने आपस में विचार–विमर्श कर बताया कि विक्रमादित्य एक घने वन में कठोर तपस्या कर रहे हैं और भविष्य में महान राजा बनने के लिए नियत हैं।
यह सुनकर शंख का भय और बढ़ गया। उसने अपने जासूस चारों दिशाओं में भेज दिए। अंततः उन्होंने विक्रमादित्य को एक शांत झील के किनारे गहन ध्यान में लीन पाया।
जासूसों ने यह सूचना शंख को दी। अब शंख ने छल और अधर्म का सहारा लिया। उसने एक तांत्रिक को साथ मिलाकर योजना बनाई—वह विक्रमादित्य को पूजा के बहाने किसी निर्जन स्थान पर ले जाकर मार डाले।
तांत्रिक विक्रमादित्य को देवी काली की आराधना कराने के बहाने एक पुराने मंदिर में ले गया। वह बोला,
“राजकुमार, झुककर देवी को प्रणाम करिए, तभी आपकी तपस्या पूर्ण होगी।”
लेकिन वर्षों की तपस्या ने विक्रमादित्य की अंतरात्मा को प्रखर बना दिया था। उन्हें तांत्रिक की आवाज़ में कपट की झलक महसूस हुई। उन्होंने तांत्रिक को पहले प्रणाम करने को कहा।
तांत्रिक जैसे ही झुका, छाया से शंख तलवार लेकर बाहर कूदा और उसने तांत्रिक का सिर काट दिया, यह समझकर कि वह विक्रमादित्य है।
विक्रमादित्य पहले से सतर्क थे। उन्होंने बिजली की गति से तलवार छीन ली और शंख का वध कर दिया।
शंख की मृत्यु के बाद प्रजा ने विक्रमादित्य को उज्जैन का राजा बनाया। उनके राज्य में न्याय, शांति और समृद्धि का युग प्रारंभ हुआ। लोग उन्हें देवतुल्य मानने लगे।
इसके बाद रत्नमंजरी ने राजा भोज से पूछा,
“क्या आप जानते हैं कि यह दिव्य सिंहासन विक्रमादित्य को कैसे मिला था?”
एक बार विक्रमादित्य जंगल में शिकार कर रहे थे। एक तेज़ हिरन अचानक उनके सामने आया और वे उसे पकड़ने के लिए बहुत दूर तक पीछा करते गए, यहाँ तक कि वे दिशा भूल गए। भटकते हुए उन्होंने दूर एक भव्य महल देखा। यह लुटवरन नामक मंत्रि का निवास था, जो बहुबली नामक राजा के राज्य में था।
राजा बहुबली ने विक्रमादित्य का आदरपूर्वक स्वागत किया। विक्रमादित्य कुछ दिनों तक वहीं रहे। लुटवरन उनकी बुद्धिमत्ता से प्रभावित था। उसने उन्हें बताया कि राजा बहुबली के पास एक दिव्य स्वर्ण सिंहासन है, जो उन्हें देवेंद्र इंद्र से प्राप्त हुआ था। वह सिंहासन किसी भी राजा को महान और यशस्वी बना देता था।
जब विक्रमादित्य वापस लौटने लगे, राजा बहुबली ने कहा कि वे कोई वर माँग लें। विक्रमादित्य ने वही दिव्य स्वर्ण सिंहासन माँगा। राजा बहुबली समझ गए कि इस अद्भुत सिंहासन के योग्य केवल विक्रमादित्य ही हैं। अतः उन्होंने वह सिंहासन उन्हें भेंट कर दिया।
विक्रमादित्य उज्जैन लौटे तो पूरा नगर हर्ष और आनंद से झूम उठा। लोग उनकी जय–जयकार करने लगे। दूर–दूर के देशों से राजा और दूत उस अद्भुत सिंहासन को देखने आने लगे, जिसकी ख्याति फैल चुकी थी।
विक्रमादित्य ने एक वर्ष तक चलने वाला भव्य यज्ञ करवाया और डेढ़ लाख गायें दान में दीं। उनकी उदारता और पराक्रम की चर्चा हर दिशा में फैल गई।
कथा समाप्त कर रत्नमंजरी बोली,
“राजा भोज, क्या आपने भी विक्रमादित्य जैसी वीरता दिखाई है? क्या आपने इतना दान किया है? यदि नहीं, तो इस सिंहासन से दूर रहें, क्योंकि यह केवल विक्रमादित्य जैसे महान राजाओं के लिए ही बना है।”
यह कहते ही वह दिव्य स्त्री फिर एक गुड़िया बन गई और सिंहासन पर अपनी जगह बैठ गई। राजा भोज भय और पश्चाताप से भरकर अपने महल लौट आए। उस रात वे नींद में भी विक्रमादित्य के पराक्रम को याद करते रहे।