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सिंहासन बत्तीसी कथा 13 – कीर्तिमती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 13

तेरहवीं गुड़िया कीर्तिमती की कथा में वर्णित प्रसंग उस समय प्रारम्भ होता है जब तेरहवें दिन राजा भोज सिंहासन पर बैठने का प्रयास करते हैं तो एक नई गुड़िया उनके सामने प्रकट होती है और कहती है कि उसका नाम कीर्तिमती है और वह पहले उन्हें राजा विक्रमादित्य की उदारता की कहानी सुनाएगी तथा उसी आधार पर निर्णय होगा कि क्या राजा भोज उस सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं या नहीं। यह सुनकर राजा भोज शांत हो जाते हैं और कीर्तिमती कथा आरम्भ करती है।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में प्रतिदिन अनेक विषयों पर चर्चा होती थी। एक दिन प्रश्न उठा कि संसार का सबसे अधिक उदार व्यक्ति कौन है। सभी प्रजाजन एक स्वर में राजा विक्रमादित्य का नाम लेते हुए उनके विभिन्न दान और त्याग के प्रसंग सुनाने लगे। राजा विक्रमादित्य विनम्रतापूर्वक सब सुनते रहे और तनिक भी गर्वित नहीं हुए। तभी एक सेवक खड़ा हुआ और बोला कि यदि राजा अनुमति दें तो वह कुछ कहना चाहता है जो शायद राजन को अप्रिय लगे। विक्रमादित्य ने उसे निडर होकर बोलने को कहा। तब सेवक ने कहा कि समुद्र पार एक राज्य का राजा कीर्तिध्वज उनसे भी अधिक उदार है, क्योंकि वह प्रतिदिन प्रातःकाल एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान किए बिना भोजन नहीं करता। सेवक कुछ दिनों तक वहाँ रहा था और स्वयं प्रतिदिन उस दान का लाभ उठाकर लौटता था। राजा ने उसकी स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर उसे पुरस्कारस्वरूप स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं और मन ही मन ठान लिया कि वह स्वयं जाकर ऐसे उदार राजा को देखना और उसकी परख करना चाहते हैं।

अगले दिन विक्रमादित्य ने अपने मंत्रीगणों को राज्य की सभी ज़िम्मेदारियाँ सौंपकर यात्रा आरम्भ की। समुद्र तट पहुँचकर उन्होंने अपने बेतालों को आदेश दिया कि वे उन्हें कीर्तिध्वज के राज्य में पहुँचाएँ। वहाँ पहुँचकर वह साधारण व्यक्ति का वेश बनाकर राजमहल गए और राजा को संदेश भेजा कि वह उज्जयिनी से काम की तलाश में आया है और वह वे सभी कार्य कर सकता है जो अन्य लोग नहीं कर पाते। राजा कीर्तिध्वज इस उत्तर से प्रभावित हुए और उसे राजमहल का पहरेदार नियुक्त कर दिया।

अगली सुबह विक्रमादित्य ने देखा कि कीर्तिध्वज राजभवन के आगे खड़े होकर निर्धनों को एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान कर रहे हैं। यह उनका दैनिक नियम था। परन्तु विक्रमादित्य को यह ज्ञात हुआ कि प्रत्येक संध्या कीर्तिध्वज किसी रहस्यमय स्थान पर अकेले जाते हैं और वहीं से अगली सुबह बाँटने के लिए स्वर्ण मुद्राएँ लाते हैं। सत्य जानने के लिए एक रात उन्होंने राजा का गुप्त रूप से पीछा किया। कीर्तिध्वज समुद्र में स्नान कर एक मंदिर पहुँचे जहाँ देवी के सामने उबलते तेल से भरी एक विशाल हाँडी रखी थी। वे बिना हिचकिचाहट उसमें कूद पड़े और तत्काल प्राण त्याग दिए। यह दृश्य देखकर विक्रमादित्य स्तब्ध रह गए। कुछ ही देर में बेताल वहाँ आए, राजा के शरीर को निकालकर उसका भक्षण कर गए और चले गए। उसके बाद देवी प्रकट हुईं, उन्होंने हड्डियों पर अमृत छिड़का और राजा पुनर्जीवित हो उठे। देवी ने उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं जिनसे राजा प्रातःकाल दान करते थे। यह रहस्य देखकर विक्रमादित्य का हृदय द्रवित हो उठा।

अगली रात विक्रमादित्य वहीं रह गए। देवी के उसी अनुष्ठान को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भी स्नान किया, प्रार्थना की और उबलते तेल में कूद पड़े। बेताल आए, उनका शरीर भक्षण किया और देवी ने उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। परन्तु जब देवी ने स्वर्ण मुद्राएँ देने की इच्छा जताई तो विक्रमादित्य ने उन्हें अस्वीकार कर कहा कि उन्हें केवल देवी के आशीर्वाद की आवश्यकता है। देवी ने कहा कि वह वही तो दे रही हैं, परन्तु विक्रमादित्य संतुष्ट न हुए और पुनः हाँडी में कूद पड़े। यह क्रम सात बार तक चला। आठवीं बार जब वह फिर कूदने को हुए तो देवी अत्यन्त प्रसन्न होकर प्रकट हुईं और बोलीं कि वह उनसे जो चाहे वर मांग सकते हैं। तब विक्रमादित्य ने एक ऐसा पुट्ठा माँगा जिसमें से प्रतिदिन स्वर्ण मुद्राएँ निकल सकें। देवी ने वह दिव्य पुट्ठा उन्हें प्रदान कर दिया और उसी क्षण मंदिर तथा देवी अदृश्य हो गईं।

विक्रमादित्य महल लौट आए। अगले दिन जब कीर्तिध्वज मंदिर पहुँचे तो उसे लुप्त देखकर वे व्याकुल हो उठे। उन्होंने भोजन और जल त्याग दिया, परन्तु दान की परम्परा नहीं छोड़ी। लगातार दुःख और चिंता से उनकी स्थिति अत्यन्त बिगड़ गई। तब विक्रमादित्य ने उनसे मिलने की अनुमति माँगी और कारण पूछा। कीर्तिध्वज ने पूरा रहस्य बताया और अपनी असहाय पीड़ा प्रकट की। यह सुनकर विक्रमादित्य मुस्कुराए और बोले कि यदि वही पवित्र पुट्ठा उन्हें मिल जाए तो क्या होगा। यह कहकर उन्होंने वह दिव्य पुट्ठा कीर्तिध्वज को दे दिया और बताया कि उन्होंने उनकी पीड़ा देखकर यह वर माँगा था। इसके बाद उन्होंने अपना वास्तविक परिचय दिया। कीर्तिध्वज भावविभोर होकर उन्हें गले लगाते हैं। दोनों में गहरी मित्रता हो जाती है। विक्रमादित्य कुछ समय वहीं रहते हैं और फिर लौट जाते हैं।

कीर्तिमती कथा समाप्त कर राजा भोज से पूछती है कि क्या उन्होंने कभी ऐसा त्याग या दान किया है। यदि हाँ तो वे सिंहासन पर बैठने योग्य हैं, अन्यथा नहीं। यह सुनकर राजा भोज व्यथित होकर वापस लौट जाते हैं।

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