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सिंहासन बत्तीसी कथा 16 – सत्यवती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 16 

सोलहवें दिन फिर से राजा भोज सिंहासन पर बैठने चले, तभी सिंहासन की सोलहवीं गुड़िया प्रकट हुई और उसने उन्हें रोका। गुड़िया ने कहा कि वह उन्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाएगी, जो उनकी अनुपम उदारता को दर्शाती है। यदि राजा भोज उस उदारता की बराबरी कर सकें, तभी वे इस दिव्य सिंहासन के योग्य हो पाएँगे। गुड़िया सत्यवती ने अपनी कथा आरंभ की।

वह बोली कि प्रतिदिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में विद्वान अनेक विषयों पर चर्चा करते थे। एक दिन देवताओं और लोकों के स्वरूप पर चर्चा छिड़ी। विद्वानों ने बताया कि पाताल लोक के अधिपति शेषनाग भगवान विष्णु के अत्यंत भक्त हैं और उनके महल में अद्भुत वैभव है। यह सुनकर विक्रमादित्य के मन में शेषनाग से मिलने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने अपने दो बेतालों को बुलाया और उनसे कहा कि वे उन्हें पाताल लोक ले चलें।

बेतालों ने राजा को अपने कंधों पर बैठाया और पाताल लोक की ओर उड़ चले। वहाँ पहुँचकर वे राजा को उतार कर अदृश्य हो गए। राजा विक्रमादित्य ने स्वयं शेषनाग के महल का मार्ग खोजा। वह महल अलौकिक प्रकाश से दमक रहा था। दीवारें रत्नों, मणियों और अनमोल पत्थरों से जड़ी थीं और चारों ओर विलक्षण सौंदर्य बिखरा था।

जब शेषनाग को ज्ञात हुआ कि एक मनुष्य उनके महल में उनसे मिलने आया है, तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने सोचा कि कोई साधारण व्यक्ति पाताल लोक तक नहीं पहुँच सकता। वे स्वयं विक्रमादित्य के स्वागत को आए। राजा ने उन्हें प्रणाम किया और अपने आगमन का उद्देश्य बताया। शेषनाग उनके विनम्र स्वभाव से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें कुछ दिन अपने महल में रहने का निमंत्रण दिया। उन दिनों में विक्रमादित्य ने पाताल लोक के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों का दर्शन किया और वहाँ के ज्ञान, वैभव और रहस्यों को समझा।

कुछ दिनों पश्चात राजा ने वापस उज्जैन लौटने की इच्छा जताई। शेषनाग ने कहा कि वे सदैव उनका कल्याण करेंगे और उन्हें विदाई स्वरूप चार विशेष मोती प्रदान किए। उन्होंने कहा कि पहला मोती राजा को जितनी धन-संपत्ति चाहिए, वह दे देगा। दूसरा मोती इच्छानुसार वस्त्र उपलब्ध कराएगा। तीसरा मोती रथ, हाथी और आभूषण प्रदत्त करेगा और चौथा मोती कीर्ति, यश और ज्ञान देगा। राजा ने कृतज्ञतापूर्वक वे चारों मोती स्वीकार किए और बेतालों को बुलाकर उज्जैन लौट आए।

वापस आते समय उन्हें एक ब्राह्मण मिला, जिसने राजा के तेज से अनुमान लगाया कि वे अत्यंत प्रसन्न हैं। राजा ने बताया कि वे पाताल लोक से होकर आ रहे हैं और शेषनाग से मिले हैं। ब्राह्मण ने उत्सुकता से पूछा कि उन्हें क्या उपहार मिला। राजा ने मोती दिखाए पर ब्राह्मण ने कहा कि राजा के खजाने में तो वैसे भी बहुत से मोती हैं। विक्रमादित्य ने जब चारों मोतियों की विशेषताएँ बताईं, तब ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ और उसने कहा कि राजा जैसा सौभाग्य किसी को कम ही मिलता है। उसने धीरे से संकेत किया कि प्रजा का भी उन उपहारों पर अधिकार है, क्योंकि राजा लोककल्याण की प्रतिमूर्ति होता है।

राजा ने उसकी बात समझी और कहा कि वह चारों मोतियों में से कोई भी मोती चुन सकता है। ब्राह्मण असमंजस में पड़ गया। वह कभी धन देने वाले मोती की ओर झुक जाता, तो कभी वस्त्र प्रदान करने वाले की ओर। फिर उसे प्रतिष्ठा और ज्ञान की लालसा होने लगी। वह किसी एक का निर्णय नहीं कर पा रहा था। उसने राजा से प्रार्थना की कि वह अपने परिवार की सलाह लेकर आए। राजा ने अनुमति दे दी।

ब्राह्मण घर पहुँचा तो उससे भी अधिक उलझन में पड़ गया। पत्नी ने कहा कि उसे आभूषण, रथ और हाथी देने वाला मोती लेना चाहिए। एक बच्चे ने वस्त्र देने वाला मोती माँगा, दूसरे ने धन देने वाला और स्वयं ब्राह्मण ज्ञान व यश देने वाला मोती लेना चाहता था। इतना विरोधाभास देखकर उसका मन बिल्कुल विचलित हो गया और वह राजा के पास लौट आया।

राजा ने उसकी दुविधा समझ ली और मुस्करा कर चारों मोती उसे दे दिए। यह उनकी महान उदारता का उदाहरण था, क्योंकि वे चाहते थे कि किसी परिवार का क्लेश मोतियों के कारण न बढ़े, बल्कि सबकी आवश्यकता पूर्ण हो।

कहानी सुनाकर सत्यवती गुड़िया ने राजा भोज से पूछा कि क्या उन्होंने कभी ऐसी मूल्यवान वस्तु किसी के हित में पूर्णतः त्यागी है। राजा भोज इस प्रश्न से विचलित हो गए, क्योंकि वे जानते थे कि वे विक्रमादित्य जैसी उदारता नहीं निभा पाएँगे। वे सिंहासन से हट गए और अपने महल लौट आए।

यह कथा केवल एक प्रसंग नहीं, बल्कि राजधर्म, कर्तव्य, उदारता और निस्वार्थ त्याग का गहरा संदेश देती है। यह बताती है कि वास्तविक महानता उपहार पाने में नहीं, बल्कि उन्हें बाँटने में है, ताकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति सुखी रह सके।

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