सिंहासन बत्तीसी कथा 17 – विद्यावती की कथा
अगली सुबह राजा भोज फिर से उस दिव्य सिंहासन के समीप पहुँचे और वे उस पर बैठने ही वाले थे कि सत्रहवीं पुतली विद्यावती प्रकट हुई। उसने राजा भोज को रोका और कहा कि वह उन्हें एक ऐसी कथा सुनाना चाहती है जिससे स्पष्ट हो सके कि क्या वे उस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं। उसने कहा कि वह सत्रहवीं पुतली विद्यावती है जिसने स्वयं विक्रमादित्य के शासनकाल को देखा है और वह जानती है कि राजा विक्रमादित्य कितने त्यागी उदार और साहसी थे। उसी आधार पर राजा भोज को स्वयं का मूल्यांकन करना चाहिए।
विद्यावती ने कथा आरंभ करते हुए कहा कि राजा विक्रमादित्य एक महान और शक्तिशाली शासक थे परंतु अपने सामर्थ्य के साथ वे अत्यंत दयालु और प्रजावत्सल भी थे। वे मन में हमेशा यही इच्छा रखते थे कि उनके राज्य का हर व्यक्ति सुखी और सुरक्षित रहे। इसी कारण वे अक्सर साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर उज्जयिनी की गलियों में घूमते ताकि अपनी प्रजा के जीवन को निकट से समझ सकें। एक रात वे फिर से वेश बदलकर नगर की गलियों में चल रहे थे कि अचानक उन्हें एक स्त्री के रुदन की तीखी आवाज़ सुनाई दी। वे तुरंत उस दिशा में बढ़े और एक ब्राह्मण के घर के सामने पहुँचकर देखा कि उसकी पत्नी रोते हुए अपने पति से कह रही थी कि उसे अपनी समस्या के विषय में राजा को अवश्य बताना चाहिए।
ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को डाँटते हुए कहा कि वह राजा को अपने लिए किसी खतरे में नहीं डाल सकता। यह सुनकर विक्रमादित्य अचंभित रह गए क्योंकि ब्राह्मण राजा के लिए खतरे की बात कर रहा था और इसके पीछे कोई गंभीर कारण अवश्य था। बातचीत कुछ देर बाद अचानक बंद हो गई। विक्रमादित्य ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की परंतु आगे कोई आवाज़ न आई। तब उन्होंने साहस करके द्वार खटखटाया। ब्राह्मण ने द्वार खोला तो उसके सामने खड़े थे स्वयं राजा विक्रमादित्य। वह भय से काँप उठा। राजा ने उसे शांत किया और कहा कि वह उसकी चिंता समझना चाहता है और वह उनकी बातों का अर्थ जानने आया है।
ब्राह्मण ने झिझकते हुए बताया कि उसके विवाह को बारह वर्ष हो गए हैं परंतु उसके घर में संतान नहीं हुई। उसकी पत्नी ने अनेक तप और व्रत किए पर कोई लाभ नहीं मिला। एक दिन उसकी पत्नी ने स्वप्न देखा कि नगर से तीस कोस दूर पूर्व दिशा में घने वन में अनेक सिद्ध साधु अग्नि के समीप किसी दिव्य अनुष्ठान में लीन हैं। वे शिव के नाम का जप करते हुए अपने शरीर के विभिन्न अंग अग्नि में अर्पित कर रहे हैं ताकि शिव प्रसन्न हों। स्वप्न में प्रकट हुई एक देवी ने ब्राह्मणी से कहा कि यदि वह स्वयं ऐसा अनुष्ठान करे तो शिव उसके मनोवांछित फल से उसे परिपूर्ण करेंगे। ब्राह्मण ने कहा कि वह किसी भी कारण से अपनी पत्नी का जीवन जोखिम में नहीं डाल सकता।
विक्रमादित्य ने ब्राह्मण की बात सुनकर कहा कि यदि उसके कथन में सत्य है तो उसे चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह स्वयं उसके स्थान पर यह कठिन अनुष्ठान करेगा। इतना कहकर वे आगे बढ़े और कुछ दूरी जाकर अपने विश्वासी बेतालों को पुकारा। बेतालों को उस स्थान का ज्ञात था इसलिए वे राजा को शीघ्र ही वहाँ ले गए और फिर अदृश्य हो गए।
विक्रमादित्य ने वहाँ उपस्थित सिद्ध साधुओं को देखा जो अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर रहे थे। राजा ने बिना किसी संकोच के स्वयं भी उसी अनुष्ठान में भाग लिया और अपने शरीर को अग्नि में अर्पित कर दिया। कुछ ही क्षणों में सभी साधु और राजा भस्म बन गए। तभी वहाँ शिव अपने गणों सहित प्रकट हुए। उन्होंने साधुओं की भस्म पर अमृत की बूँदें छिड़कीं और वे पुनः जीवित हो गए परंतु अमृत की बूँदें राजा की भस्म पर नहीं गिरीं जिससे वे जीवित न हो सके।
सिद्ध साधु अत्यंत दुःखी हुए और उन्होंने शिव से विनती की कि जिसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया उसे पुनर्जीवन अवश्य मिलना चाहिए। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिव ने राजा की भस्म पर अमृत छिड़का और राजा पुनः जीवित हो उठे। शिव ने उनसे वर माँगने को कहा। राजा ने विनम्रता से कहा कि उन्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बल्कि वे चाहते हैं कि ब्राह्मण दंपति को संतान का सुख प्राप्त हो।
शिव ने मुस्कराते हुए दो कमल दिए जिनमें एक राजा के लिए और दूसरा ब्राह्मण दंपति के लिए था। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण के घर में कमल स्थापित करने से समृद्धि और संतान का आशीर्वाद मिलेगा। राजा बेतालों की सहायता से उज्जयिनी लौटे और ब्राह्मण को कमल सौंपकर उसे संपूर्ण घटना का वर्णन किया। ब्राह्मण दंपति ने कृतज्ञता व्यक्त की और शीघ्र ही ब्राह्मणी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया।
कथा समाप्त कर विद्यावती ने राजा भोज से पूछा कि क्या वे भी विक्रमादित्य की भाँति प्रजा के लिए अपना सब कुछ त्याग सकते हैं। यदि हाँ तो वे सिंहासन पर बैठें अन्यथा लौट जाएँ। राजा भोज कुछ क्षण विचार में मग्न रहे और फिर अपने महल लौट गए।