सिंहासन बत्तीसी कथा 19
उन्नीसवें दिन राजा भोज जब सिंहासन पर बैठने जा रहे थे, तभी उन्नीसवीं गुड़िया रूपरेखा ने उन्हें रोक दिया। उसने कहा कि वह एक कहानी सुनाएगी, जो यह बताएगी कि न्याय करने में मन और ज्ञान दोनों का संतुलन कितना महत्वपूर्ण होता है। उसने राजा से कहा कि पहले पूरी कहानी सुनो, फिर निर्णय लो कि तुम इस सिंहासन पर बैठने योग्य हो या नहीं। इतना कहकर गुड़िया ने अपनी कथा आरंभ की।
एक दिन दो तपस्वी राजा विक्रमादित्य के दरबार में आए। दोनों के दृष्टिकोण अलग थे और वे एक प्रश्न का समाधान चाहते थे। पहला तपस्वी कहता था कि मन सबसे प्रबल अंग है। मनुष्य वही करता है जो उसका मन चाहता है और उसके विचारों पर निर्भर रहता है। दूसरा तपस्वी कहता था कि ज्ञान ही सर्वोपरि है। यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त ज्ञान हो, तो वह अपने मन को नियंत्रित कर सकता है और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। राजा ने दोनों की बात ध्यानपूर्वक सुनी। यह प्रश्न कठिन था, इसलिए उन्होंने दोनों से कुछ दिनों के लिए जाने को कहा।
राजा विक्रमादित्य कठिन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए अक्सर नगरवासियों के बीच भेष बदलकर जाते थे। इस बार भी उन्होंने साधारण वेश धारण किया और उज्जैन की गलियों में घूमने लगे। तभी उन्होंने एक वृक्ष के नीचे बैठे युवक को देखा। उसके कपड़े फटे और गंदे थे, चेहरा थका हुआ और दृष्टि उदास थी। राजा ने पहचान लिया और बोले कि क्या वह सेठ गोपालदास का पुत्र नौरंगीदास है। युवक ने स्वीकार किया, पर अब लोग उसे केवल नौरंगी कहते हैं।
राजा ने पूछा कि इतनी विपरीत दशा में वह कैसे आया। नौरंगीदास ने आँसू भरे नेत्रों से कहा कि उनके पिता ने बहुत संपत्ति छोड़ी थी, पर उन्होंने बुरी संगति और व्यसन में सब नष्ट कर दिया। उनका भाई सारंगीदास बार-बार समझाता रहा, पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया और अंततः वह निर्धन हो गए। अब वे मजदूरी करके अपना जीवन चलाते हैं। राजा ने यह सुनकर महसूस किया कि मन के असंयम और नियंत्रणहीनता के कारण व्यक्ति अपने जीवन में विफल हो जाता है।
तपस्वियों के विवाद का पहला उत्तर यहीं मिल गया। व्यक्ति जिसका मन नियंत्रित नहीं है, वह जीवन में सफल नहीं हो सकता। नौरंगीदास की दशा इसका स्पष्ट उदाहरण थी। राजा ने फिर पूछा कि अब वह अपने जीवन के साथ क्या करना चाहता है। युवक ने कहा कि उसने अपनी गलतियों से बहुत कुछ सीखा है। वह कठिन परिश्रम कर रहा है और अब अपने लिए कुछ धन भी जोड़ पाया है। उसने बैलगाड़ी खरीदी है और ईमानदारी से व्यापार शुरू करने का प्रयास कर रहा है। यह सुनकर राजा ने समझ लिया कि ज्ञान व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण करना सिखाता है और सही दिशा देता है।
राजा ने युवक की दृढ़ता और सुधार की इच्छा को देखकर उसे कुछ स्वर्ण मुद्राएँ दीं और कहा कि अब वह अपने जीवन को सुधारने और एक नया व्यापार आरंभ करने में समर्थ है। नौरंगीदास ने झुककर राजा का धन्यवाद किया और राजा ने अपने भेष को त्यागते हुए अपना वास्तविक परिचय बताया। यह देखकर युवक ने विनम्रतापूर्वक आभार व्यक्त किया।
कुछ दिनों बाद दोनों तपस्वी पुनः दरबार में आए। राजा ने उन्हें समझाया कि मन और ज्ञान दोनों का महत्व समान है। मन व्यक्ति की शक्ति है, पर वह जब तक ज्ञान के मार्गदर्शन में नहीं आता, जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मन घोड़े के समान है और ज्ञान उसका सारथी। घोड़ा बलशाली है पर दिशा ज्ञान से मिलती है। यही कारण है कि मन और ज्ञान दोनों आवश्यक हैं। तपस्वी राजा के उत्तर से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे एक जादुई खड़िया भेंट की।
तपस्वियों ने कहा कि इस खड़िया से जो चित्र बनाया जाएगा, वह रात में सजीव हो जाएगा। यदि मानव आकृति बनाएंगे, तो उसकी वाणी भी सुनाई देगी। राजा ने इस जादुई खड़िया का परीक्षण करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने कक्ष में भगवान कृष्ण और देवी सरस्वती का चित्र बनाया। रात में चित्र सजीव हो गए और उन्होंने राजा से वार्ता की। सुबह चित्र पुनः सामान्य हो गया। राजा प्रतिदिन चित्र बनाते और रात्रि में उनसे संवाद करते।
धीरे-धीरे राजा इस अद्भुत अनुभव में इतना खो गए कि उन्होंने अपनी रानियों से मिलने की आदत छोड़ दी। रानियाँ परेशान हो गईं और राजा से उनके अनुपस्थिति का कारण पूछा। तब राजा को समझ आया कि अब उनका मन स्वयं के नियंत्रण से बाहर हो गया है। उन्होंने रानियों को अपने अनुभव के बारे में बताया और अपनी गलती का प्रायश्चित किया।
कहानी समाप्त होने के बाद गुड़िया ने राजा भोज से पूछा कि क्या उन्होंने भी कभी ऐसे कठिन प्रश्न का समाधान किया है। यदि हाँ, तो वे सिंहासन पर बैठने योग्य हैं, अन्यथा उन्हें वापस अपने महल लौट जाना चाहिए। राजा भोज ने विनम्रतापूर्वक इसे स्वीकार किया और अपने महल लौट गए। उन्होंने यह अनुभव अपने जीवन में शिक्षा स्वरूप ग्रहण किया कि मन और ज्ञान का संतुलन जीवन में सफलता की कुंजी है।
इस प्रकार उन्नीसवीं गुड़िया रूपरेखा की कहानी न केवल राजा भोज के लिए बल्कि हम सभी के लिए सीख देने वाली है। यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य का मन शक्ति है, पर ज्ञान ही उसे सही दिशा देता है। व्यक्ति का जीवन तभी सफल होता है जब वह अपने मन को नियंत्रित करना सीखे और उसे उचित मार्गदर्शन प्रदान करे। नौरंगीदास का जीवन इसका उत्तम उदाहरण है कि पहले असंयम और अनियंत्रित मन पतन का कारण बनता है, और जब व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित करने के लिए ज्ञान अर्जित करता है, तब वह सफलता की ओर बढ़ता है।
राजा विक्रमादित्य का दृष्टिकोण यह भी दर्शाता है कि न्याय और समझदारी केवल अनुभव और सूझ-बूझ से ही आती है। कठिन प्रश्नों का समाधान तभी संभव है जब व्यक्ति अपने आसपास की वास्तविकताओं को समझे और लोगों के जीवन से सीख ले। यही कारण है कि राजा ने नौरंगीदास के जीवन से यह निष्कर्ष निकाला कि मन और ज्ञान दोनों का संतुलन अत्यंत आवश्यक है।
गुड़िया रूपरेखा ने राजा भोज को यह समझाने के बाद यह संकेत दिया कि किसी भी सिंहासन या जिम्मेदारी पर बैठने के लिए केवल अधिकार पर्याप्त नहीं है, बल्कि समझदारी, ज्ञान और मन के नियंत्रण की क्षमता भी आवश्यक है। राजा भोज ने यह शिक्षा आत्मसात की और अपने महल लौटकर भविष्य में सही निर्णय लेने का संकल्प लिया।
कहानी यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य को अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए अपने मन को नियंत्रित करना सीखना चाहिए और ज्ञान का सही उपयोग करना चाहिए। यदि मन और ज्ञान का संतुलन बना रहता है, तो व्यक्ति जीवन में किसी भी कठिनाई का सामना आसानी से कर सकता है और सही निर्णय ले सकता है। नौरंगीदास की कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि अपने अतीत से सीख लेना और सुधार की दिशा में प्रयास करना हमेशा संभव है और यही जीवन में सच्ची सफलता की कुंजी है।
राजा भोज ने यह अनुभव कर लिया कि सत्ता या अधिकार केवल बाहरी शक्ति नहीं होते, बल्कि इसके साथ समझदारी, अनुभव और न्याय की भावना आवश्यक है। गुड़िया रूपरेखा ने यह साबित किया कि जीवन में मन और ज्ञान का संतुलन सबसे महत्वपूर्ण है और किसी भी कठिन प्रश्न का समाधान इसी संतुलन से संभव है।
इस प्रकार यह कथा न केवल राजा भोज के लिए बल्कि सभी के लिए जीवन में अनुकरणीय और प्रेरक है।