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सिंहासन बत्तीसी कथा 24 – करुणावती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 24

चौबीसवें दिन जब राजा भोज सिंहासन के समीप पहुँचे तो चौबीसवीं पुतली करुणावती प्रकट हुई और बोली कि वे पहले राजा विक्रमादित्य की कथा सुनें और फिर निर्णय लें कि वे इस अद्भुत सिंहासन पर बैठने योग्य हैं या नहीं। यह कहकर वह कथा सुनाने लगी। उसने बताया कि विक्रमादित्य अपनी प्रजा की खुशहाली और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भेष बदलकर रात्रि में उज्जैन की गलियों में घूमते थे ताकि वे जान सकें कि उनके राज्य में कोई दुखी या परेशान तो नहीं है। एक रात जब वे इसी प्रकार भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक व्यापारी के महल की ऊँची दीवार से एक रस्सी लटक रही है। उन्हें लगा कि कोई चोर भीतर गया होगा। बिना देर किए वे भी रस्सी पकड़कर ऊपर चढ़ गए। छत पर पहुँचकर उन्होंने कुछ आवाज़ें सुनीं और दबे पाँव उस कक्ष की खिड़की के पास पहुँचे जहाँ से बातें सुनाई दे रही थीं। कमरे में एक स्त्री और एक पुरुष धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे।

स्त्री कह रही थी कि अब देर हो चुकी है और वह चाहती है कि उसका प्रेमी उसके पति को तुरंत मार दे क्योंकि वह अगले कक्ष में सो रहा है। पुरुष ने भय और असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि वह अपराधी अवश्य है पर किसी की हत्या नहीं कर सकता। उसने यह भी कहा कि वह स्त्री से प्रेम अवश्य करता है पर वह चाहे तो वह उसे लेकर कहीं दूर चला जाएगा और उसके सुख का प्रयत्न करेगा। स्त्री ने असंतोष से कहा कि यदि वह ऐसा नहीं कर सकता तो वह स्वयं यह कार्य करेगी पर यह काम उस रात संभव नहीं है। उसने कहा कि अगले दिन वह धन और आभूषण एकत्र कर लेगी और दोनों साथ भाग जाएंगे इसलिए उसका प्रेमी अभी के लिए लौट जाए।

यह सब सुनकर विक्रमादित्य समझ गए कि स्त्री व्यापारी की पत्नी है और पुरुष कोई चोर या लुटेरा है। उन्होंने अनुमान लगाया कि अपराधी शीघ्र ही बाहर आएगा इसलिए वे तुरंत बाहर उतर आए और नीचे आकर उसका इंतजार करने लगे। जैसे ही वह पुरुष रस्सी से नीचे उतरा राजा ने उसे पकड़ लिया और अपना परिचय देते हुए कहा कि वह कोई चाल चलने की कोशिश न करे तथा सच्चाई बताए। अपराधी डर गया और हाथ जोड़कर बोला कि उसका नाम शीलदास है और वह बचपन से भानुप्रिया नाम की लड़की से प्रेम करता था जो अब व्यापारी की पत्नी है। उसने आगे बताया कि उसके पिता समुद्री व्यापार करते थे पर एक बार समुद्री लुटेरों ने उन पर हमला कर दिया और सब लूट लिया जिससे उसके पिता शोक में मर गए। पिता की मृत्यु के बाद उसे पता चला कि पिता ने भारी ऋण ले रखा था। वह क्रोध से भर गया और उसने निश्चय किया कि उन समुद्री लुटेरों को समाप्त कर देगा। वह किसी तरह उनके दल में शामिल हो गया और अवसर आने पर एक एक लुटेरे को मारता गया। उसके पास उनके संग्रहीत धन और आभूषण आ गए।

आखिर वह राज्य में लौट आया पर उसे पता चला कि भानुप्रिया का विवाह हो चुका है। वह व्याकुल हो उठा। संयोग से एक दिन जब भानुप्रिया अपने माता पिता के घर आई तो वह उससे मिला और अत्यंत दुखी होकर पूछा कि उसने प्रेम होते हुए भी उसका इंतजार क्यों नहीं किया। उसने उसे बताया कि अब उसके पास पर्याप्त धन है और वे साथ रहें तो सुखी जीवन बिता सकते हैं। उसने समुद्री लुटेरों की पूरी कहानी भी उसे सुनाई और बताया कि उसके पास नौ रत्नों वाला एक बहुमूल्य हार भी है। यह सुनते ही भानुप्रिया ने वह हार मांग लिया और उसने प्रेमवश वह उसे दे भी दिया। वह उसे प्रतिदिन देखने आने लगा।

उस रात जब वह उससे मिलने गया तो उसने अपने पति को मार डालने के लिए उकसाया पर वह तैयार न हुआ। उसने शीलदास से कहा कि अगले दिन वह सभी धन और आभूषण लेकर उसके साथ भाग जाएगी। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने शीलदास की पूरी बात ध्यान से समझी। उन्होंने उससे कहा कि किसी विवाहित स्त्री से प्रेम करना उचित नहीं है और भानुप्रिया जैसी स्त्री का चरित्र भरोसे योग्य नहीं क्योंकि वह धन के कारण प्रेम प्रदर्शित कर रही है और अपने पति की हत्या तक का षड्यंत्र बना रही है। शीलदास राजा के चरणों में गिरकर बोला कि वह भूल गया है और किसी भी दंड को स्वीकार करने को तैयार है। राजा ने कहा कि वह स्वतंत्र है क्योंकि उसने समुद्री लुटेरों को मारकर न्याय ही किया है। वे उसे अपनी सेना में स्थान देंगे।

अगले दिन राजा ने योजना बनाई। उन्होंने शीलदास का भेष धारण किया और व्यापारी के घर पहुँचकर रस्सी ऊपर फेंकी। भानुप्रिया समझ गई कि उसका प्रेमी आया है। उसने आभूषणों से भरी पोटली नीचे फेंकी और स्वयं भी रस्सी पकड़कर उतर आई। जैसे ही वह नीचे पहुँची उसने धीरे से कहा कि उसने अपने पति को विष देकर अचेत कर दिया है और सब धन ले आई है। तभी उसे लगा कुछ ठीक नहीं है। उसने सामने खड़े पुरुष की दाढ़ी मूंछ पकड़कर खींची और शंका के साथ चिल्लाई कि सामने खड़ा व्यक्ति चोर है जिसने उसके पति को मार दिया है और भागने की कोशिश कर रहा है। राजा के सैनिक झाड़ियों में छिपे थे और तुरंत बाहर आ गए। उन्होंने भानुप्रिया को पकड़ लिया। राजमहल ले जाते समय जब उसे पूरी सच्चाई पता चली तो उसने एक विष की शीशी निकाली और वहीं पीकर प्राण त्याग दिए।

कथा समाप्त कर करुणावती पुतली ने पूछा कि क्या राजा भोज कभी विक्रमादित्य की भाँति न्याय और धर्म का पालन कर सके हैं। यदि वे स्वयं को इतना दृढ़ और न्यायपूर्ण मानते हों तो सिंहासन पर विराजें अन्यथा अपने महल लौट जाएं। राजा भोज मौन रहे और अंततः अपने महल की ओर लौट गए।

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