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सिंहासन बत्तीसी कथा 25 – जयलक्ष्मी की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 25

पचीसवीं गुड़िया जयलक्ष्मी ने राजा भोज को रोकते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति का स्वभाव और उसकी सोच एक-दूसरे से भिन्न होती है। जब तक कोई व्यक्ति यह न समझे कि संसार में अलग-अलग प्रकृतियाँ और विचार वाले लोग रहते हैं, तब तक वह उस सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं हो सकता जिसे कभी महान राजा विक्रमादित्य ने सुशोभित किया था। यह कहते हुए जयलक्ष्मी ने एक कथा कहना आरम्भ किया।

उज्जैन राज्य में एक विदूषक और एक ब्राह्मण रहते थे। दोनों ही गरीब थे, किन्तु अपनी गरीबी को लेकर कभी दुखी नहीं रहते थे। विदूषक प्रतिदिन लोगों को हँसा कर थोड़ा-बहुत कमा लेता था, जो केवल उसी दिन के लिए पर्याप्त होता। उसकी पत्नी इस प्रकार के जीवन की अभ्यस्त थी, परन्तु जब उनकी बेटी बड़ी होने लगी, तो उसे भविष्य की चिंता सताने लगी। एक रात उसने विदूषक से पूछा कि क्या उसने कभी उनकी बेटी के भविष्य के बारे में सोचा है। विदूषक ने सरल स्वर में उत्तर दिया कि उन्होंने कभी भूखे पेट रात नहीं बिताई, ईश्वर ने हमेशा उन्हें उतना दिया जितना आवश्यकता थी, इसलिए चिंता करने का कोई कारण नहीं है। उसने कहा कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है और वह अपने भाग्य पर भरोसा करता है।

पत्नी ने नाराज होकर कहा कि वह अपनी बेटी के विवाह की बात कर रही है। तब विदूषक ने समझाया कि जब जन्म हमारे हाथ में नहीं है, तो विवाह, शिक्षा या भविष्य की अन्य बातों को लेकर अधिक चिंता क्यों करना। उसकी पत्नी समझ गई कि उसका पति बहुत अधिक लापरवाह है, जबकि परिवार की जिम्मेदारियों को समझने में उसे कठिनाई होती है।

उसी प्रकार ब्राह्मण का परिवार भी चिंता में था। ब्राह्मण की पत्नी चाहती थी कि उनकी बेटी का विवाह शीघ्र हो जाए। ब्राह्मण ने कहा कि वह भी यही चाहता है, परन्तु धन की व्यवस्था करना उसके लिए कठिन हो रहा है। उसने कई धनी लोगों से मदद माँगने की कोशिश की, पर कहीं से कोई लाभ नहीं हुआ। अगले दिन भी विदूषक की पत्नी ने उसे विवाह के लिए धन की व्यवस्था करने का आग्रह किया। विदूषक ने आश्वासन दिया कि वह प्रयास करेगा।

उस दिन विदूषक एक दूसरे राज्य पहुँचा और व्यापारियों व धनवानों से मदद माँगी। किसी तरह उसने कुछ धन इकट्ठा किया और लौटते समय डाकुओं ने उसका सारा धन लूट लिया और उसे घायल कर दिया। घर पहुँचकर उसने पत्नी को सब कुछ बताकर कहा कि ईश्वर ने चाहा ही नहीं कि यह धन उनकी बेटी के विवाह में उपयोग हो। पत्नी नाराज होकर बोली कि क्या ईश्वर स्वयं राजा विक्रमादित्य का रूप धारण कर आकर उनकी मदद करेगा। विदूषक ने हँसते हुए कहा कि ऐसा भी संभव है।

उसी समय राजा विक्रमादित्य सामान्य व्यक्ति के वेश में शहर का भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने विदूषक की बातचीत सुनी और उसके अटूट विश्वास को देखकर भावविभोर हो उठे। कुछ देर बाद वह ब्राह्मण के घर के पास पहुँचे जहाँ ब्राह्मण और उसकी पत्नी भी अपनी बेटी के विवाह की चिंता में डूबे थे। पत्नी ने कहा कि अब उन्हें राजा से सहायता माँगनी चाहिए। ब्राह्मण ने अगले दिन महल जाने का निश्चय किया। राजा ने उनकी बात सुनकर मुस्कुराते हुए अपने महल का मार्ग लिया।

अगले दिन सैनिकों ने विदूषक और ब्राह्मण दोनों को संदेश भेजा कि राजा उनसे उनकी बेटियों के विवाह के विषय में बात करना चाहते हैं। दोनों अत्यंत प्रसन्न होकर महल पहुँचे और राजा को प्रणाम किया। राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि विदूषक को उतनी धनराशि दी जाए जितनी उसकी बेटी के विवाह के लिए आवश्यक है, और ब्राह्मण को उतना धन दिया जाए जितना वह अपनी आवश्यकता अनुसार चाहता है। मंत्री ने विदूषक को दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दीं, जबकि ब्राह्मण को केवल उसकी आवश्यकता के अनुसार धन दिया गया।

दोनों ने कृतज्ञता व्यक्त की और वहाँ से चले गए। तब एक सेवक ने राजा से पूछा कि आपने विदूषक को तो मंत्री की बेटी के विवाह के बराबर धन दे दिया, पर ब्राह्मण को केवल आवश्यकता भर ही दिया। राजा ने रात को सुनी हुई वार्ता का वर्णन किया और कहा कि विदूषक का विश्वास ईश्वर पर दृढ़ है, इसलिए ईश्वर की ओर से मिलने वाली सहायता सदैव अधिक होनी चाहिए, जबकि ब्राह्मण की आशा केवल राजा से थी, इसलिए उसे उतना ही धन दिया गया जितना वह चाहता था।

सबने राजा विक्रमादित्य की न्यायप्रियता और उदारता की सराहना की। कहानी समाप्त करते हुए गुड़िया जयलक्ष्मी ने राजा भोज से पूछा कि क्या उनमें भी लोगों के स्वभाव और विचार की पहचान करने की क्षमता है। यदि नहीं, तो उन्हें सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है। यह सुनकर राजा भोज निराश होकर अपने महल लौट गए।

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