छब्बीसवें दिन जब राजा भोज पुनः सिंहासन पर बैठने आए, तो छब्बीसवीं गुड़िया मृगनयनी उनके सामने प्रकट हुई। उसने कहा कि राजा विक्रमादित्य केवल एक महान शासक ही नहीं थे, बल्कि अद्वितीय तपस्वी और दयालु व्यक्ति भी थे। उसने राजा भोज से आग्रह किया कि वह उसकी कथा सुनें और स्वयं तय करें कि क्या वे उस सिंहासन के योग्य हैं, जिस पर कभी विक्रमादित्य विराजमान थे।
मृगनयनी ने कहानी शुरू की।
राजा विक्रमादित्य इतने महान तपस्वी थे कि एक समय देवेंद्र भी उनकी तपस्या से विचलित हो उठे। उसी काल में एक घटना घटी। एक रात नगर के पहरेदारों ने एक युवक को भारी धनराशि के साथ पकड़ा। उन्हें संदेह हुआ कि वह चोर है। सुबह उसे राजा विक्रमादित्य के पास लाया गया। राजा ने सत्य पूछने पर युवक ने कहा कि वह एक धनी स्त्री का सेवक है। वह स्त्री उस पर मोहित हो गई थी और अपने पति की हत्या कर उसके धन के साथ भागने का मन बना चुकी थी। उसने युवक से धन सम्हालने को कहा था।
राजा ने सत्यता जानने के लिए कुछ सैनिकों को उस स्त्री के घर भेजा। सैनिक लौटकर आए और बताया कि स्त्री ने वास्तव में अपने पति की हत्या कर दी है और अब वह झूठा रो-रोकर यह दिखा रही है कि उसके पति को डाकुओं ने मारा है। वह यह भी कह रही है कि वह पति के साथ सती होगी।
राजा ने युवक को जेल नहीं भेजा। अगले ही दिन जब वह स्त्री सती होने जा रही थी, तभी राजा विक्रमादित्य युवक और सैनिकों के साथ वहाँ पहुँच गए। उन्होंने स्त्री से पूछा कि क्या वह युवक को पहचानती है। उन्होंने बताया कि युवक ने सब स्वीकार किया है और अब स्त्री को दंड मिलेगा। यह सुनकर स्त्री भयभीत हुई, पर शीघ्र ही बोली कि राजा को उसके चरित्र की चिंता क्यों है। क्या राजा जानते हैं कि उनकी सबसे छोटी रानी क्या कर रही है। यह कहकर उसने अपने पति की चिता में स्वयं को झोंक दिया।
राजा इस कथन से स्तब्ध रह गए। उन्होंने अपनी सबसे छोटी रानी पर नज़र रखने का निश्चय किया। कुछ ही रात बाद उन्होंने देखा कि रानी महल से छुपकर जंगल की ओर गई। वहाँ एक तपस्वी ध्यान में बैठा था। रानी को देख तपस्वी अपने कुटी में चला गया और रानी भी उसके पीछे गई। यह दृश्य देखकर राजा क्रोधित हो उठे। उन्हें लगा कि जिसे वे अत्यधिक प्रेम करते थे, वही उन्हें धोखा दे रही है। क्रोध में आकर राजा कुटी में घुस गए और दोनों का वध कर दिया।
इस घटना के बाद राजा विक्रमादित्य गहरे दुःख में डूब गए। उन्होंने सोचा कि कौन सा पाप उनसे हो गया जिसकी यह कठोर परिणति मिली। उन्होंने राज्य का कार्यभार मंत्रियों को सौंपा और अकेले मार्ग पर निकल पड़े। वर्षों तक भटकते हुए वह समुद्र तट पर पहुँचे, जहाँ शांत वातावरण था। उन्होंने वहीं तपस्या करने का निश्चय किया और एक पैर पर खड़े होकर ध्यान में लीन हो गए।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर समुद्रदेव वरुण प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। राजा ने कहा कि वह समुद्र तट पर एक कुटिया बनाकर ध्यान करना चाहते हैं और कोई भी उन्हें बाधित न कर सके। वरुण ने उन्हें एक शंख प्रदान किया और कहा कि यदि कभी किसी देव या किसी अन्य द्वारा बाधा पहुँचाने का प्रयास हो, तो वह शंख बजाएँ और सारी विघ्न दूर हो जाएँगे।
राजा ने कुटिया बनाई और ध्यान में लीन हो गए। कई माह बीत गए। देवेंद्र को चिंता हुई कि यदि विक्रमादित्य ऐसी ही तपस्या करते रहे, तो उनका सिंहासन भी खतरे में पड़ सकता है। उन्होंने देवगणों को आदेश दिया कि वर्षा कर राजा का ध्यान भंग करें। देवगणों ने भारी वर्षा करवाई, परंतु वरुण के आशीर्वाद से जल समुद्र में समा गया और कुटिया के पास एक बूंद भी न ठहरी।
फिर इंद्र ने वायु देव को भेजा। प्रचंड तूफ़ान उठा, कुटिया टूट गई, परंतु जब हवा ने राजा को उड़ाने का प्रयास किया, तो विक्रमादित्य ने शंख बजाया और तूफ़ान शांत होकर मंद समीर में बदल गया।
अब इंद्र ने स्वर्ग की सुंदरतम अप्सरा तिलोत्तमा को भेजा। तिलोत्तमा पृथ्वी पर आई और नृत्य व संगीत से विक्रमादित्य का ध्यान भंग करने लगी। राजा ने पुनः शंख बजाया। शंख की ध्वनि सुनकर तिलोत्तमा के शरीर में दाह होने लगा और वह तत्काल स्वर्ग लौट गई।
अंत में इंद्र स्वयं एक ब्राह्मण का वेश धारण कर कुटिया में पहुँचे। उन्होंने दान माँगा। राजा ने आँखें खोलकर कहा कि वह जो भी माँगे, देंगे। ब्राह्मण बने इंद्र ने कहा कि उन्हें उसकी तपस्या का फल चाहिए। राजा ने सहर्ष अपनी तपस्या का फल देने को स्वीकार कर लिया। इससे इंद्र अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर बोले कि राजा की उदारता अतुलनीय है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि विक्रमादित्य के राज्य में प्राकृतिक आपदाएँ कभी हानि नहीं पहुँचाएँगी। इसके बाद इंद्र स्वर्ग लौट गए और विक्रमादित्य को मन की शांति मिल गई। फिर वह अपने महल लौट आए।
कथा समाप्त कर मृगनयनी ने पूछा कि क्या राजा भोज ने कभी ऐसी तपस्या की है या अपने तप का फल दान किया है। यदि हाँ, तो वे सिंहासन पर बैठ सकते हैं, अन्यथा लौट जाएँ। राजा भोज निरुत्तर रह गए और वापस महल लौट गए।