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सिंहासन बत्तीसी कथा 27 – मलयावती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 27

मलयावती, जो राजा विक्रमादित्य के सिंहासन की सत्ताइसवीं गुड़िया थी, राजा भोज के सामने प्रकट होकर स्वयं का परिचय देते हुए बोली, “मेरा नाम मलयावती है। मैं उन बत्तीस अद्भुत गुड़ियों में से एक हूँ जिनमें विक्रमादित्य की अद्भुत स्मृतियाँ और प्रेरणादायक प्रसंग सुरक्षित हैं। हमारे स्वामी अतुलनीय विद्वान, दयालु, धर्मनिष्ठ और परोपकारी थे, परंतु उनमें कभी अभिमान नहीं था। वे महान ऋषियों और सत्पुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर स्वयं को सदैव बेहतर बनाने का प्रयास करते थे। आज मैं तुम्हें उसी महापुरुष का एक प्रसंग सुनाती हूँ। इसका निर्णय तुम स्वयं करो कि क्या तुम उस सिंहासन पर बैठने योग्य हो या नहीं।”

इसके बाद मलयावती ने कथा प्रारंभ की।

राजा विक्रमादित्य अत्यंत विद्वान और आचार्य समान राजा थे। उनके महल में एक विशाल पुस्तकालय था, जिसमें प्राचीन और नवीन सभी प्रकार के ग्रंथ सुरक्षित थे। जब भी उन्हें समय मिलता, वे इन ग्रंथों का अध्ययन करते। एक दिन उन्होंने राजा बली के बारे में एक विस्तृत कथा पढ़ी। राजा बली अपने वचन पर अडिग, दयालु और परोपकारी थे। वे प्रह्लाद के पौत्र और महान भक्त थे। देवताओं के अनुरोध पर भगवान विष्णु वामन अवतार में आए और तीन पग भूमि मांगकर राजा बली का राज्य ले लिया। यद्यपि उन्होंने छल से राज्य लिया, किंतु राजा बली की भक्ति और त्याग से प्रसन्न होकर उन्हें पाताल लोक का अधिपति बना दिया।

यह पढ़कर विक्रमादित्य के मन में विचार आया, “राजा बली वास्तव में अद्वितीय और महान आत्मा हैं। मुझे किसी भी प्रकार उनसे मिलना चाहिए।” उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे भगवान विष्णु की आराधना करेंगे और उनसे मार्ग पूछेंगे।

उन्होंने राज्य का दायित्व मंत्रियों को सौंपा और वन में जाकर तपस्या आरंभ कर दी। पहले वे एक समय का भोजन करने लगे, फिर केवल फलाहार, और कुछ समय बाद केवल जल पर निर्भर रहने लगे। उनकी कठोर साधना से शरीर कृश होने लगा, फिर भी वे भगवान विष्णु के दर्शनों की इच्छा से अडिग रहे।

वन में ही एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। अपने दिव्य ज्ञान से उन्होंने पहचान लिया कि यह साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि राजा विक्रमादित्य हैं। उन्होंने पूछा, “वत्स, तुम राजा होते हुए इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रहे हो? तुम्हारा धर्म है कि तुम प्रजा का पालन करो। ईश्वर ने तुम्हें इसी उद्देश्य से पृथ्वी पर भेजा है।”

विक्रमादित्य ने विनम्रता से कहा, “कर्म ही सब कुछ नहीं है। यदि मनुष्य धर्म और विश्वास से विमुख हो जाए, तो अगले जन्मों में दुख भोगने पड़ते हैं। ईश्वर न तो केवल कर्म करने को कहते हैं और न ही केवल धर्म करने को, बल्कि दोनों का संतुलन आवश्यक है।”

ऋषि के पास इस उत्तर का कोई प्रत्युत्तर न था। वे मौन होकर फिर से ध्यान में लीन हो गए। कुछ समय बाद विक्रमादित्य अत्यधिक दुर्बल हो गए और बेहोश होकर गिर पड़े। होश आने पर उन्होंने स्वयं को ऋषि की गोद में पाया। उन्होंने आँखें खोलीं और देखा कि सामने स्वयं भगवान विष्णु खड़े हैं। भावविभोर होकर वे उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा, “प्रभु, आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ। मेरी इच्छा है कि मैं राजा बली से भेंट करूँ।”

भगवान विष्णु ने उन्हें एक दिव्य शंख दिया और कहा, “इस शंख को बजाओगे तो वरुण देव तुम्हें पाताल लोक तक ले जाएँगे। लौटते समय भी इसे बजाना, मार्ग मिल जाएगा।”

विक्रमादित्य ने प्रणाम किया और शंख बजाया। तुरंत ही पाताल जाने का मार्ग प्रकट हुआ। वे वहाँ पहुँचे और राजा बली के महल के द्वारपालों से मिलने की अनुमति माँगी। संदेश भीतर भिजवाया गया, परंतु राजा बली ने तुरंत मिलने से मना कर दिया। कई बार संदेश भेजे गए, परंतु बली ने मिलने का समय ‘शिवरात्रि’ का ही निर्धारित किया।

विक्रमादित्य का मन अधीर था। उन्होंने द्वारपालों से कहा, “मैं राजा बली से आज ही मिलूँगा। यदि वे नहीं मिलेंगे तो मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँगा।” और इतना कहकर उन्होंने अपनी तलवार ली और अपने ही शरीर से सिर अलग कर लिया।

जब यह समाचार राजा बली को मिला, वे तुरंत बाहर आए और अमृत छिड़ककर विक्रमादित्य को पुनर्जीवित कर दिया। विक्रम पुनर्जीवित होकर उनके चरणों में झुके और कहा कि वे उनकी महिमा सुनकर उनसे मिलने आए हैं। राजा बली प्रसन्न हुए और उन्हें अपने महल में ले गए। कुछ दिनों तक विक्रम वहाँ अतिथि रूप में रहे और दोनों के बीच धर्म, कर्म और नीति पर गहन चर्चा होती रही।

जब लौटने का समय आया, राजा बली ने उन्हें एक दिव्य माणिक दिया और कहा, “यह रत्न तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूर्ण करेगा।” विक्रमादित्य ने कृतज्ञता व्यक्त की और वापस लौटने लगे। लौटते समय उन्होंने एक स्त्री को विलाप करते देखा, जिसका पति मृत्यु को प्राप्त हो गया था। उन्होंने माणिक का उपयोग कर उस व्यक्ति को पुनर्जीवित कर दिया। स्त्री–पुरुष ने प्रसन्न होकर राजा को आशीर्वाद दिया।

कथा समाप्त करके मलयावती ने राजा भोज से पूछा, “क्या तुममें इतनी शक्ति, तप और त्याग है? क्या तुम विक्रमादित्य जैसे आदर्शों का पालन कर सकते हो? यदि हाँ, तो इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार तुम्हें है, अन्यथा लौट जाओ।”

राजा भोज निरुत्तर हो गए और विषाद के साथ महल लौट गए।

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