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सिंहासन बत्तीसी कथा 28 – वैदेही की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 28

राजा भोज जब अट्ठाईसवें दिन पुनः सिंहासन पर बैठने हेतु आगे बढ़े, तभी अट्ठाईसवीं गुड़िया वैदेही उनके सामने प्रकट हुई। उसने स्वयं का परिचय देते हुए कहा, “राजा भोज, मेरा नाम वैदेही है। मैं इस सिंहासन की अट्ठाईसवीं गुड़िया हूँ। क्या आपको कभी देवेंद्र इंद्र ने अपने सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया है? हमारे परम प्रतापी राजा विक्रमादित्य को यह सम्मान प्राप्त हुआ था। आज मैं वही कथा आपको सुनाने आई हूँ, ताकि आप जान सकें कि इस सिंहासन पर बैठना कितना महान और कठिन है।”

वैदेही ने कथा आरम्भ की।

एक दिन राजा विक्रमादित्य ने अपने दरबार में विद्वानों और ज्योतिषियों को बुलाया। उन्होंने कहा, “कल रात मैंने अत्यंत अद्भुत स्वप्न देखा। मैं एक दिव्य और भव्य महल में घूम रहा था। चारों ओर स्वर्ण जड़ित दीवारें थीं, जिन पर अनमोल रत्न जड़े थे। महल के बाहर एक विशाल उद्यान था, जहाँ असंख्य रंगों के पुष्प खिले थे। उनकी सुगंध पूरे वातावरण को मधुर बना रही थी। भीतर से मन को शांति देने वाला संगीत सुनाई दे रहा था। मैं आगे बढ़ा तो देखा कि एक तेजस्वी पुरुष ध्यानमग्न बैठे हैं। जब मैंने उनका चेहरा देखा, तो वह मेरे ही समान प्रतीत हुआ। तभी मेरा स्वप्न टूट गया।”

राजा विक्रमादित्य ने विद्वानों से पूछा कि यह स्थान कहाँ है। गणना करने के बाद सभी ज्योतिषी एकमत हुए, “महाराज, ऐसा महल पृथ्वी पर नहीं है। यह तो स्वर्गलोक में इंद्र का महल है। वहीं ऐसा सौंदर्य मिल सकता है। परंतु वहाँ वही व्यक्ति पहुंच सकता है जो ईश्वर में अटूट विश्वास रखता हो और मार्ग में दो श्रेष्ठ कर्म करे।”

राजा समझ गए कि यह कठिन मार्ग है, क्योंकि वे स्वयं जप और पूजा में समय नहीं दे पाते थे। उनके मंत्री ने समाधान सुझाया, “महाराज, आपके साथ राजपुरोहित चल सकते हैं। वे सदा ईश्वर का नाम स्मरण करते हैं।” राजा को यह उचित लगा और वे भेष बदलकर राजपुरोहित के साथ यात्रा पर निकल पड़े।

यात्रा के दौरान एक रात वे एक घर में ठहरे। आधी रात को विक्रमादित्य ने पड़ोस से रोने की आवाज सुनी। उन्होंने जाकर देखा कि एक वृद्धा रो रही है। पूछने पर उसने बताया, “मेरा एक ही बेटा है। आज जंगल में लकड़ी लेने गया था, पर अभी तक लौटा नहीं है। मैं डर रही हूँ कि कहीं कोई अनहोनी न हो गई हो।”

राजा ने उसे सांत्वना दी, “आप चिंता मत करें, मैं आपके बेटे को खोजकर लाऊँगा।” वे तुरंत जंगल की ओर चले। काफी खोजने के बाद उन्होंने युवक को एक पेड़ की डाल पर बैठे पाया और नीचे एक सिंह घूम रहा था। उन्होंने साहसपूर्वक सिंह को दूर भगाया और युवक को सुरक्षित घर ले आए। वृद्धा आनंद से भर गई और उसने राजा को आशीष दिया।

अगली सुबह दोनों ने अपनी यात्रा जारी रखी। वे समुद्र के किनारे पहुँचे। वहाँ एक स्त्री रो रही थी। पास ही नाविक लोग एक बड़े जहाज पर सामान चढ़ा रहे थे। राजा ने स्त्री से पूछा, “तुम क्यों रो रही हो?” उसने बताया, “आज मेरे पति इस जहाज पर लंबी यात्रा पर जा रहे हैं। रात मेरे सपने में आया कि जहाज डूब गया और मेरे पति समुद्र में समा गए। हमारी शादी को केवल तीन महीने हुए हैं और मैं गर्भवती भी हूँ। यदि उन्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगी?”

राजा ने उसके दुख को ध्यानपूर्वक सुना। उन्होंने अपने पास रखा वरुण देव का शंख निकाला और कहा, “इस शंख की शक्ति अद्भुत है। इसे अपने पति को दे दो। किसी भी संकट में यह उनकी रक्षा करेगा।” स्त्री को विश्वास नहीं हुआ। राजा ने स्वयं शंख बजाकर दिखाया। तुरंत ही समुद्र की लहरें पीछे हट गईं और कुछ ही पलों में पुनः सामान्य हो गईं। स्त्री ने आश्चर्य से राजा को देखा और आभार व्यक्त करते हुए शंख को अपने पति को दे दिया।

इसके बाद वे आगे बढ़े ही थे कि अचानक आकाश में प्रकाश फैला और एक श्वेत अश्व उनके सम्मुख उतरा। स्वर्गीय वाणी ने कहा, “राजा विक्रमादित्य, तुमने मार्ग में दो महान कार्य किए हैं — वृद्धा के बेटे को बचाया और इस स्त्री के पति की रक्षा सुनिश्चित की। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। यह अश्व तुम्हें इंद्रलोक ले जाएगा।”

राजा ने कहा, “पर मेरे साथ पुरोहित भी हैं।” पुरोहित ने folded hands कर कहा, “महाराज, आप ही योग्य हैं। मैं वापस लौटता हूँ, कृपया आप आगे बढ़ें।” राजा सहमत हुए और अश्व पर सवार हो गए। कुछ ही क्षणों में वे इंद्रलोक पहुँच गए।

इंद्रलोक का वैभव देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए — वही सुनहरे महल, वही मनोहर उद्यान, वही सुगंध और वही संगीत जो उन्होंने स्वप्न में देखा था। वे महल में प्रवेश कर इंद्र के दरबार पहुँचे। इंद्र ने उन्हें स्नेहपूर्वक गले लगाया और अपने सिंहासन पर बैठने का आग्रह किया।

राजा विनम्रता से बोले, “देवेंद्र, मैं आपके सिंहासन पर कैसे बैठ सकता हूँ?”
इंद्र मुस्कुराए, “वत्स, यह मेरा ही रूप था जो तुमने स्वप्न में देखा था। मैं तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता था। तुम वास्तव में धर्म, कर्म और सहायता के योग्य उदाहरण हो। तुम जैसे राजाओं पर ही देवता प्रसन्न होते हैं।”

इंद्र ने उन्हें एक दिव्य मुकुट भेंट किया। कुछ दिन इंद्रलोक में रहने के बाद विक्रमादित्य अपने राज्य लौट आए।

कथा समाप्त कर वैदेही ने राजा भोज से पूछा, “क्या आपको कभी ऐसी महानता और देवसम्मान प्राप्त हुआ है? यदि नहीं, तो आप इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी नहीं हैं।”

राजा भोज निःशब्द रह गए और लौटकर अपने महल चले गए।

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