इस कथा के अनुसार, उनत्तीसवें दिन जब राजा भोज शक्तिशाली और गौरवशाली सिंहासन पर बैठने का प्रयास कर रहे थे, तभी उनत्तीसवीं गुड़िया मानवती ने उन्हें रोकते हुए कहा कि वे तभी इस अद्भुत सिंहासन पर बैठने योग्य होंगे, जब उनमें राजा विक्रमादित्य जैसे महान गुणों का समावेश हो। उन्होंने अपने परिचय के बाद राजा भोज को विक्रमादित्य की एक प्रेरणादायक कथा सुनानी आरम्भ की।
मानवती ने कहा कि एक शाम राजा विक्रमादित्य अपने महल की छत पर टहल रहे थे। सूरज ढलने का अनुपम दृश्य उन्हें आनन्दित कर रहा था, तभी उन्होंने सहायता की पुकार सुनी। नीचे नदी के किनारे एक युवक और एक युवती तेज बहाव में डूब रहे थे। विक्रमादित्य बिना किसी देर के वहाँ पहुँचे, नदी में कूदे और दोनों को सुरक्षित बाहर निकाल लाए। जैसे ही उनकी दृष्टि उस युवती पर पड़ी, वे उसकी सौन्दर्यता और दिव्य आभा से प्रभावित हुए। दोनों भाई-बहन ने बताया कि उनका नाविक परिवार एक भंवर में फँस गया था और सभी की मौत हो गई, केवल वे दोनों जीवित बचे। युवक ने अपना नाम देवकन्त और बहन का नाम देवकन्या बताया और कहा कि वे सारंगा राज्य के निवासी हैं।
राजा दोनों को महल में अतिथि बनाकर ले आए। वहाँ उन्होंने राजसी आदर और सुख-सुविधाएँ पाईं। कुछ समय बाद देवकन्त अपनी बहन के विवाह को लेकर चिंतित रहने लगा। उसे विचार आया कि यदि उसकी बहन का विवाह राजा विक्रमादित्य से हो जाए तो उसका भविष्य सुरक्षित होगा। वह अपनी बहन के साथ राजा के पास पहुँचा। देवकन्या राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित अत्यन्त मनोहर लग रही थी। परन्तु देवकन्त की आशा के विपरीत राजा ने कहा कि देवकन्या उनके महल में उनकी सहोदर बहन की तरह रहेगी। यह सुनकर देवकन्त के मन में संकोच और अपराधबोध जागा। राजा ने कहा कि एक शासक का चरित्र निष्कलंक होना चाहिए, अन्यथा वह अपने प्रजाजनों के लिए अनुकरणीय नहीं बन सकता।
देवकन्त ने अपनी विवशता बताई कि उसके पास अपनी बहन का विवाह योग्य राज्य में कराने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। उसने बताया कि उदयगिरि के राजा उदयन देवकन्या से विवाह करना चाहते थे, पर आर्थिक अभाव के कारण उसने प्रस्ताव ठुकरा दिया। यह सुनकर विक्रमादित्य ने एक विश्वसनीय पुरोहित को बुलाया और विवाह-प्रस्ताव लेकर उदयगिरि भेजने के लिए धन और सामग्री प्रदान की। पर लौटकर पुरोहित ने बताया कि मार्ग में चार व्यक्तियों ने उसे लूट लिया।
राजा यह सुनकर चकित रह गए क्योंकि उनके राज्य में चोरी-डकैती का कोई स्थान नहीं था। उन्होंने स्वयं भेष बदलकर उस स्थान का निरीक्षण किया जहाँ पुरोहित लुटा गया था। वहाँ उन्होंने चार व्यक्तियों को संदिग्ध अवस्था में बैठे देखा। उन्हें देखकर वे भयभीत हो उठे, पर भेष बदलकर आए राजा ने स्वयं को एक चोर बताकर उनका विश्वास जीतने की कोशिश की। पहले तो वे लोग बात छुपाते रहे, किन्तु अंततः उन्होंने स्वीकार किया कि वे चारों चोर हैं। उनके दल का मुखिया बोला कि वे किसी भी अनजान व्यक्ति को दल में शामिल नहीं करते, क्योंकि हर सदस्य में कोई विशेष गुण होता है। उन्होंने अपने-अपने गुण बताए—एक चोरी का शुभ समय पहचान सकता था, दूसरा पक्षियों और पशुओं की भाषा समझता था, तीसरा अदृश्य होने की कला जानता था और चौथे के पास ऐसा यंत्र था जिससे मार सहने पर भी उसे पीड़ा नहीं होती। जब राजा ने बताया कि वे किसी स्थान को देखकर वहाँ छिपे धन का अनुमान लगा सकते हैं, तो वे प्रभावित हुए और उन्हें अपने दल में शामिल कर लिया।
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राजा ने उन्हें अपने ही महल को लूटने के लिए प्रेरित किया। जब वे सारी संपत्ति लेकर बाहर निकलने लगे, तभी सैनिकों ने उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। अगले दिन जब वे दरबार लाए गए, तो अपने पाँचवें साथी को सिंहासन पर बैठे देख वे कांपने लगे। विक्रमादित्य ने कहा कि सभी में अद्भुत कला और क्षमता है, जिन्हें गलत कार्य में लगाने के बजाय समाजहित के लिए प्रयोग करना चाहिए। उनके पश्चात्ताप और प्रतिज्ञा के बाद उन्होंने चारों को क्षमा कर दिया और उन्हें अपने सैनिक दल में नियुक्त कर दिया।
इसी बीच देवकन्या और राजा उदयन का विवाह भी विधिवत् संपन्न हुआ। विवाह के सभी खर्च स्वयं राजा विक्रमादित्य ने वहन किए। यह कथा सुनाने के बाद मानवती गुड़िया ने राजा भोज से पूछा कि क्या उनमें भी ऐसा पवित्र चरित्र, साहस और निष्पक्षता है जैसी राजा विक्रमादित्य में थी। यदि हाँ, तो वे सिंहासन पर बैठने योग्य हैं। यह सुनकर राजा भोज लज्जित हुए और अपने महल लौट गए।