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सिंहासन बत्तीसी कथा 31 – कौशल्या की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 31

इकतीसवें दिन जब राजा भोज पुनः सिंहासन पर बैठने आए, तो इकतीसवीं गुड़िया उनके सामने प्रकट हुई और राजा विक्रमादित्य से जुड़ी एक कथा सुनाने लगी। उसने अपना परिचय देते हुए कहा कि वह कौशल्या है, इस दिव्य सिंहासन की इकतीसवीं गुड़िया। उसने राजा भोज से कहा कि जब स्वयं विक्रमादित्य का पुत्र इस सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं था, तो वे कैसे इस पर बैठने का विचार कर सकते हैं। उसने कहा कि आवश्यकता है कि राजा भोज विक्रमादित्य की उदारता और त्याग को समझें, ताकि वे स्वयं अपने योग्य होने का अनुमान लगा सकें।

गुड़िया ने कथा आरंभ करते हुए बताया कि जब राजा विक्रमादित्य को यह आभास हो गया कि उनका जीवन अंत की ओर बढ़ रहा है, तब उन्होंने अपना अधिकांश समय तप, पूजा और ध्यान में व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया। वे अक्सर घने जंगल में एक कुटिया के आसपास रहते थे। एक रात जब वे अपनी कुटिया के बाहर खड़े थे, उन्हें दूर एक तेज प्रकाश दिखाई दिया। वे उस प्रकाश का रहस्य जानना चाहते थे। उन्होंने अपने बेतालों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि वे उन्हें उस प्रकाश के निकट ले चलें।

बेतालों ने उन्हें एक भव्य महल के पास पहुँचाया और कहा कि यह महल एक सिद्ध तपस्वी का है, जिसके क्षेत्र में केवल वही प्रवेश कर सकता है जिसकी शक्ति उस तपस्वी से भी बढ़कर हो। राजा विक्रमादित्य निर्भय आगे बढ़े और महल के द्वार तक पहुँचे। तभी तेज आग का एक विशाल गोला उनके सामने आकर रुक गया, परन्तु अंदर से आवाज आई कि जो भी हो, भीतर आ जाए। जैसे ही आवाज आई, अग्नि का गोला विलुप्त हो गया और राजा भीतर प्रवेश कर गए।

वे उस कक्ष तक पहुँचे जहाँ तपस्वी ध्यानस्थ थे। राजा को देखते ही वे खड़े हुए और क्रोध में पूछा कि वे कौन हैं और क्यों आए हैं। राजा ने विनम्रता से अपना परिचय दिया। तपस्वी स्तब्ध हो गए और अत्यंत सम्मान से बोले कि उन्होंने ऐसा महान राजा कभी नहीं देखा। उन्होंने पूछा कि राजा उनकी किस प्रकार सेवा चाहते हैं। राजा ने हाथ जोड़ दिए और अनुरोध किया कि यदि तपस्वी सचमुच प्रसन्न हैं, तो उन्हें यह अति अद्भुत महल तथा इसकी समस्त सुविधाएँ प्रदान करें। तपस्वी ने सहर्ष वह महल उन्हें दान कर दिया और जंगल की ओर लौट गए।

कुछ दिनों बाद भटकते हुए तपस्वी अपने गुरु से मिले। उनके गुरु ने पूछा कि जब उनके पास इतना भव्य महल है, तो वे जंगल में क्यों भटक रहे हैं। तपस्वी ने बताया कि उन्होंने वह महल राजा विक्रमादित्य को दे दिया। गुरु मुस्कुराए और बोले कि राजा विक्रमादित्य इतने दानी हैं कि कभी ऐसी वस्तु अपने लिए नहीं माँगेंगे। उन्होंने तपस्वी से कहा कि वे एक ब्राह्मण का रूप लेकर महल वापस मांगें।

तपस्वी ब्राह्मण का वेश धारण कर महल की ओर चले। रास्ते में उन्होंने देखा कि राजा विक्रमादित्य कुटिया के बाहर ध्यानमग्न बैठे हैं। ब्राह्मण बने तपस्वी राजा के पास पहुँचे और राज्य में किसी उपयुक्त स्थान की माँग की। राजा मुस्कुराए और बोले कि वे उन्हें पहचानते हैं। वे बोले कि वे उन्हें परख रहे थे और अब तपस्वी उन्हें। राजा ने महल पुनः उन्हें सौंप दिया और कहा कि वह महल उन्हीं का है। तपस्वी हर्षित होकर पुनः अपने महल में रहने लगे।

गुड़िया ने आगे कहा कि विक्रमादित्य जितने महान और दयालु थे, उतना ही वे प्रकृति के नियमों को स्वीकार करने वाले थे। कुछ ही दिनों बाद उनका देहांत हो गया। उज्जैन का प्रत्येक नागरिक शोक में डूब गया, क्योंकि वे सबके संरक्षक और मार्गदर्शक थे। जब उनकी चिता जलाई गई, तो देवताओं ने फूल बरसाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।

गुड़िया ने आगे बताया कि विक्रमादित्य के देहांत के बाद नए राजा के चयन के लिए सभा बुलाई गई। सबने सहमति से उनके बड़े पुत्र जैतपाल को राजा घोषित किया। शुभ दिवस पर अभिषेक के समय जैसे ही जैतपाल सिंहासन पर बैठे, वे अचेत होकर गिर पड़े। अचेतावस्था में उन्होंने एक स्वप्न देखा, जिसमें उनके पिता प्रकट हुए और कहा कि वे अभी इस दिव्य सिंहासन के योग्य नहीं हैं। यह सिंहासन परम पवित्र है और केवल वही इस पर बैठ सकता है जो अत्यंत विनम्र, साहसी, दानी और न्यायप्रिय हो। उन्होंने कहा कि उचित समय आने पर वे फिर स्वप्न में आकर संकेत देंगे।

जैतपाल होश में आए तो मंत्रियों को स्वप्न के बारे में बताया। कुछ मंत्रियों ने इसे सामान्य स्वप्न कहा, जबकि कुछ ने इसे विशेष संकेत माना। सबसे वृद्ध मंत्री ने सुझाव दिया कि जैतपाल रात्रि में अपने पिता का ध्यान करें, वे अवश्य स्वप्न में मार्गदर्शन देंगे। जैतपाल ने वही किया। रात को विक्रमादित्य पुनः स्वप्न में आए और कहा कि इस दिव्य सिंहासन को भूमि में गाड़ दें और अंबावती को नई राजधानी बनाएं। भविष्य में जब कोई योग्य व्यक्ति जन्म लेगा, तब यह सिंहासन उसी को प्राप्त होगा।

अगले दिन जैतपाल ने मंत्रियों को बताया और पिता के आदेश का पालन किया। वे अंबावती जाकर नई राजधानी स्थापित कर बैठे। कथा पूरी करके गुड़िया ने राजा भोज से कहा कि जब विक्रमादित्य का पुत्र भी इस सिंहासन के योग्य नहीं हुआ, तो वे कैसे स्वयं को इसके योग्य मान सकते हैं। यह कहकर वह अपनी जगह लौट गई। राजा भोज भी गहरे विचारों में डूबे अपने महल लौट आए।

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