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सिंहासन बत्तीसी कथा 5 – लीलावती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 5

पांचवीं गुड़िया लीलावती की कहानी इस प्रकार है कि अगले दिन प्रातःकाल राजा भोज फिर से उस अद्वितीय सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े, किंतु जैसे ही वे पास पहुँचे, सिंहासन से पांचवीं गुड़िया निकलकर उनके समक्ष आ खड़ी हुई और मधुर स्वर में बोली कि मेरा नाम लीलावती है और मैंने विक्रमादित्य की उदारता का ऐसा बेजोड़ उदाहरण देखा है जो शायद आपने जीवन में सुना भी न होगा, इसलिए पहले यह कथा सुनें और फिर विचार करें कि क्या आप इस सिंहासन के योग्य हैं या नहीं।

लीलावती ने अपनी कथा आरंभ की कि एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने दरबार में मंत्रियों और प्रजाजन के साथ राज्य के महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण उनके समक्ष उपस्थित हुआ और विनम्रता से प्रणाम किया। जब राजा ने आगमन का उद्देश्य पूछा तो ब्राह्मण बोला कि राजन मैं ज्योतिषी हूँ और आपकी ग्रह-चाल देखकर निष्कर्ष निकाला है कि यदि आप शुभ मुहूर्त में एक भव्य महल का निर्माण करवाएँगे तो आपको अपार सफलता मिलेगी, समृद्धि बढ़ेगी और संपूर्ण राज्य में माँ लक्ष्मी का वास होगा और आपकी प्रजा अधिक सुखी और समृद्ध जीवन व्यतीत करेगी। यह सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि मैं अपने लिए कुछ नहीं चाहता, किंतु यदि महल निर्माण से मेरी प्रजा का कल्याण होता है तो मैं अवश्य यह कार्य करूँगा और उन्होंने ब्राह्मण को कुछ स्वर्ण मुद्राएँ देकर उसका आभार व्यक्त किया।

राजा ने तुरंत मंत्रियों को महल निर्माण की तैयारी प्रारंभ करने का आदेश दिया और शीघ्र ही शिप्रा नदी के तट पर एक उपयुक्त स्थान चुन लिया गया। श्रेष्ठ वास्तुकारों और कुशल शिल्पकारों को बुलाया गया और कुछ ही समय में एक भव्य राजमहल तैयार हो गया जिसमें लगभग तीस स्तंभ, चार विशाल द्वार और भीतर अनगिनत कक्ष भरे थे जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती और रत्नों की सजावट थी। जब महल तैयार हुआ तो राजा विक्रमादित्य निरीक्षण के लिए पहुँचे और उसकी दिव्यता देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उनके साथ वही ब्राह्मण भी था जो स्वयं महल की अद्भुत सुंदरता देखकर दंग रह गया और अनायास ही उसके मुख से निकला कि काश यह महल मेरा होता। उसके ये शब्द सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने बिना किसी विचार के तुरंत कह दिया कि आज से यह महल तुम्हारा है। ब्राह्मण स्तब्ध रह गया और विश्वास ही न कर पाया कि इतना भव्य महल उसे मिल गया है।

जब ब्राह्मण घर लौटा तो उसकी पत्नी पहले तो अत्यंत क्रोधित हुई क्योंकि वह खाली हाथ लौटा था, किंतु जब ब्राह्मण ने बताया कि राजा ने पूरा राजमहल दान कर दिया है, तो वह स्तब्ध रह गई। वे दोनों तुरंत अपने सामान के साथ उस महल में जाकर रहने लगे। रात में जब वे आराम कर रहे थे तो अचानक एक दिव्य प्रकाश कमरे में फैला और एक मधुर परंतु गम्भीर आवाज़ आई कि मैं धन की देवी लक्ष्मी हूँ और तुम्हारे लिए यहाँ आई हूँ, तुम जो चाहो वर मांगो, मैं इस महल को धन, स्वर्ण और रत्नों से भर सकती हूँ। यह सुनकर ब्राह्मण और उसकी पत्नी भयभीत हो गए और कुछ भी उत्तर न दे सके, यहाँ तक कि ब्राह्मण की पत्नी बेहोश हो गई और ब्राह्मण ने स्वयं को चादर में ढक लिया। देवी ने फिर पुकारा लेकिन कोई उत्तर न मिला, जिससे वे रुष्ट होकर चली गईं।

अगली सुबह ब्राह्मण और उसकी पत्नी ने निर्णय लिया कि वे इस महल में और नहीं रहेंगे क्योंकि उन्हें लगा कि इसमें कोई प्रेत या दिव्य शक्ति है जिससे वे डर गए थे, इसलिए वे वापस अपने पुराने कुटिया में लौट गए। ब्राह्मण तुरंत राजा विक्रमादित्य के पास पहुँचा और पूरी घटना सुनाकर बोला कि महल वापस ले लीजिए, मैं इसे नहीं रख सकता। राजा विक्रमादित्य ने कहा कि जिसे दान दे दिया उसे कैसे वापस ले सकता हूँ, परंतु ब्राह्मण के बार-बार आग्रह करने पर राजा ने उससे महल खरीद लिया और बदले में उसे भारी धनराशि दे दी जिससे वह अत्यंत प्रसन्न होकर चला गया।

राजा स्वयं उस भव्य महल में रहने लगे और राज्यकार्यों का संचालन वहीं से करने लगे। उसी रात देवी लक्ष्मी फिर प्रकट हुईं और फिर वही प्रस्ताव रखा कि जो चाहो माँग लो। राजा विक्रमादित्य ने विनम्रता से कहा कि माता मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, यदि कृपा करनी ही है तो मेरे राज्य की प्रजा को समृद्ध कर दीजिए। देवी ने वरदान दिया और अगले दिन पूरे राज्य में धन वर्षा होने लगी। राजा ने आदेश दिया कि सारा धन राज्यकोष में इकट्ठा किया जाए और फिर पूरी प्रजा में समान रूप से बाँटा जाए ताकि हर व्यक्ति लाभान्वित हो सके। मंत्री उसी प्रकार कार्य करते गए।

कथा समाप्त कर पांचवीं गुड़िया लीलावती राजा भोज से बोली कि क्या आप भी विक्रमादित्य की भाँति उदार और निस्वार्थ हैं, यदि देवी लक्ष्मी आप पर ऐसी कृपा करें तो क्या आप भी धन को अपनी प्रजा के बीच समान रूप से बाँट देंगे, यदि हाँ तो सिंहासन पर बैठिए, अन्यथा लौट जाइए। यह कहकर वह वापस अपने स्थान पर चली गई और राजा भोज विचारमग्न होकर अपने महल लौट आए।

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