सिंहासन बत्तीसी कथा 7
सातवें दिन, जब राजा भोज ने फिर से सिंहासन की ओर बढ़ने का प्रयास किया, सातवीं गुड़िया सिंहासन से उठकर उनके सामने खड़ी हो गई। उसने विनम्र लेकिन गंभीर स्वर में कहा, “राजन, मेरा नाम कौमुदी है। इस सिंहासन पर बैठने का प्रयास मत कीजिए जब तक आप इसके योग्य नहीं बनते। क्या आपका हृदय उदार है और क्या आप एक न्यायप्रिय और करुणामय शासक हैं, जैसे राजा विक्रमादित्य थे? मेरी कहानी सुनिए और फिर अपने आपको परखिए।”
राजा भोज ने ध्यानपूर्वक गुड़िया की बातें सुनीं और कौमुदी ने कहानी सुनाना शुरू किया।
कहानी कुछ इस प्रकार है।
एक रात, जब राजा विक्रमादित्य अपने कमरे में आरामपूर्वक सो रहे थे, अचानक उन्हें दूर से जोरदार और अत्यंत व्यथित आवाज़ें सुनाई दीं। आवाज़ें इतनी तीव्र और बार-बार आने वाली थीं कि राजा को पता चल गया कि किसी की मदद की तत्काल आवश्यकता है। उन्होंने ध्यान से सुनकर समझा कि यह एक महिला की पुकार है। वह महिला संकट में थी। बिना किसी देर के, राजा ने उठकर तैयार होना शुरू किया और तय किया कि वह स्वयं जाकर स्थिति का पता लगाएंगे।
वह आवाज़ें शिप्रा नदी की दिशा से आ रही थीं। राजा ने महल से बाहर निकलकर नदी के किनारे की ओर कदम बढ़ाया। जब वे नदी के पास पहुँचे, तो देखा कि आवाज़ें नदी के उस पार से आ रही हैं। नदी का पानी शांत नहीं था, बल्कि हलचल और हल्की लहरों के कारण किनारे तक पहुँचने में थोड़ा संघर्ष था। विक्रमादित्य ने साहसपूर्वक नदी में छलांग लगाई और तैरकर नदी के दूसरी ओर पहुँचे।
कुछ दूरी चलने के बाद उन्होंने देखा कि एक महिला जोर-जोर से रो रही थी। उसके हाथ और चेहरे पर भय और चिंता साफ झलक रही थी। राजा ने पास जाकर उससे पूछा, “हे महिला! आप क्यों रो रही हैं? बताइए, क्या हुआ है?”
महिला ने भयभीत होकर उत्तर दिया, “आप क्या कर सकते हैं यदि मैं आपको सच बता दूँ? क्या आप मुझे सहायता का वचन देंगे यदि मैं अपना दुख बताऊँ?”
विक्रमादित्य ने गंभीरता से कहा, “रोना बंद कीजिए। मैं उज्जैन का राजा हूँ। मैं आपको हर संभव मदद का वचन देता हूँ। बस मुझे सच बताइए कि क्या हुआ।”
महिला ने फूट-फूट कर रोते हुए कहा, “मेरा पति धोखेबाज है। एक दिन नगर प्रहरी ने उसे पकड़ लिया और उसे एक पेड़ पर लटकाकर मृत्युदंड दे दिया गया। वह अब भी पेड़ पर लटके हुए हैं और भूख और प्यास से व्यथित हैं।”
विक्रमादित्य ने गंभीर होकर पूछा, “क्या आपको लगता है कि प्रहरी ने आपके पति के साथ अन्याय किया? यदि ऐसा है तो मैं मामले की पुनः जाँच कर सकता हूँ।”
महिला ने उत्तर दिया, “नहीं, मैं मानती हूँ कि मेरे पति ने अपराध किया और उन्हें उचित दंड मिला है, लेकिन उनका जीवन भूख से खतरे में नहीं पड़ना चाहिए। जब तक वह जीवित हैं, उन्हें भोजन और पानी मिलना चाहिए।”
राजा विक्रमादित्य ने थोड़ी देर सोचकर कहा, “आप सही कहती हैं। प्रत्येक जीव का जीवन मूल्यवान है।”
महिला ने कहा, “मैंने कई प्रयास किए, भोजन और पानी पहुँचाने के लिए, लेकिन जब मैं यहाँ आई, तो उन्हें छु नहीं सकी। कई लोगों से मदद माँगी, लेकिन सभी ने मना कर दिया।”
विक्रमादित्य ने देखा कि अपराधी पेड़ की शाखा पर लटका हुआ है। उसकी हालत देखकर राजा ने सोच-विचार किया। कुछ समय ध्यान में रहने के बाद उन्होंने कहा, “मैं आपका भार सह सकता हूँ। आप मेरे कंधों पर चढ़कर अपने पति को भोजन पहुँचा सकती हैं। इस प्रकार आपके पति की भूख से मृत्यु नहीं होगी।”
महिला वास्तव में एक राक्षसी थी और इस अवसर का इंतजार कर रही थी। वह राजा के कंधों पर चढ़ गई और अपने पति को पकड़कर उसे निगल लिया। इसके बाद वह कंधों से उतरकर बोली, “राजन! आपने मुझे संतुष्ट किया। आप कुछ भी माँग सकते हैं, मैं आपकी इच्छा पूरी करूँगी।”
राजा विक्रमादित्य ने कहा, “यदि आप मुझे कुछ दें, तो मुझे अन्नपूर्णा (भोजन की देवी) दीजिए। तब मैं अपने प्रजाजनों को किसी भी समय भोजन दे सकूँगा।”
राक्षसी ने उत्तर दिया, “मैं यह नहीं कर सकती, लेकिन मेरी बहन, जो यहीं पास एक घर में रहती हैं, वह आपकी सहायता कर सकती हैं।”
राजा विक्रमादित्य राक्षसी के साथ बहन के घर पहुँचे। वहाँ राक्षसी ने अपनी बहन को पूरा प्रकरण बताया और कहा, “यह राजा अन्नपूर्णा के योग्य हैं। कृपया उन्हें अन्नपूर्णा दें।”
राक्षसी की बहन ने राजा को एक सुंदर कटोरी दी और कहा, “जब भी आप इस कटोरी से भोजन माँगेंगे, यह आपको भरपूर और स्वादिष्ट भोजन प्रदान करेगी।”
राजा विक्रमादित्य ने राक्षसी और उसकी बहन का धन्यवाद किया और महल लौटने लगे। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध साधु से मुलाकात की। साधु ने भिक्षा के रूप में भोजन माँगा। राजा ने अन्नपूर्णा की कटोरी निकाली और कहा, “हे अन्नपूर्णा! इस साधु को स्वादिष्ट भोजन दो।”
जैसे ही राजा ने ऐसा कहा, कटोरी भोजन से भर गई और साधु ने भोजन किया। साधु ने राजा का धन्यवाद किया और कहा, “हे राजा! आप सच में दयालु और उदार हैं।” राजा ने पूछा, “क्या आपको और कुछ चाहिए?” साधु ने अन्नपूर्णा की कटोरी की जादुई शक्ति देख ली थी और कटोरी प्राप्त करना चाहा। राजा ने साधु को वह कटोरी दे दी।
कहानी सुनाने के बाद, गुड़िया कौमुदी ने राजा भोज से पूछा, “क्या आपने कभी राजा विक्रमादित्य जैसी उदारता दिखाई है? यदि हाँ, तो आप सिंहासन पर बैठ सकते हैं, अन्यथा अपने महल लौट जाइए।”
यह कहकर गुड़िया अपने स्थान पर लौट गई और राजा भोज अपने महल की ओर चले गए।