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सिंहासन बत्तीसी कथा 9 – मधुमालती की कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ

सिंहासन बत्तीसी कथा 9

अगले दिन जब राजा भोज फिर से उस अद्भुत सिंहासन के समीप पहुँचे तो नौवीं पुतली उनके सामने एक सुंदर स्त्री के रूप में प्रकट हुई। उसने मधुर किंतु दृढ़ स्वर में कहा कि उसका नाम मधुमालती है। उसने स्पष्ट किया कि इस सिंहासन पर बैठने के लिए राजा को वही गुण धारण करने होंगे जो महान राजा विक्रमादित्य में थे। उसने कहा कि वह आज जो कथा सुनाएगी, उससे राजा भोज को यह समझ आएगा कि एक आदर्श राजा अपनी प्रजा और राज्य के लिए कितना उत्तरदायी होता है। उसने राजा भोज से आग्रह किया कि कथा सुनने के बाद वे स्वयं तय करें कि वे इस सिंहासन के योग्य हैं या नहीं। इतना कहकर उसने अपनी कथा आरंभ की।

मधुमालती ने बताया कि राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के कल्याण के विचारों में सदैव डूबे रहते थे। उन्हें अपने राज्य के लोगों की उन्नति, सुरक्षा और सुख ही सर्वोपरि लगते थे। एक बार उन्होंने पूरे राज्य और जनता के कल्याण के लिए एक भव्य यज्ञ करने का निश्चय किया। इस यज्ञ के लिए उन्होंने दूर-दूर से आने वाले विद्वान ऋषियों, मुनियों, संतों और साधुओं को आमंत्रित किया। कई दिनों तक यह महान यज्ञ चलता रहा और देश-विदेश से आए ब्राह्मणों, व्यापारियों, गणमान्यों और अन्य राजाओं ने भी इसमें भाग लिया।

यज्ञ के अंतिम दिन एक अत्यंत वृद्ध ऋषि वहाँ पहुँचे। उस समय राजा विक्रमादित्य विधि-विधान के अनुसार अनुष्ठान में सम्मिलित थे, इसलिए वे स्वयं जाकर उनका स्वागत नहीं कर सके, किंतु उन्होंने झुककर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और अपने सेवकों को उनके उचित आदर-सत्कार का संकेत दिया। ऋषि ने राजा के इस विनम्र व्यवहार को स्वीकार किया और उन्हें आशीर्वाद दिया।

यज्ञ समाप्त होने पर राजा विक्रमादित्य उस वृद्ध ऋषि के पास गए और ससम्मान बोले कि वे उन्हें पहचानते हैं, क्योंकि वे नगर से बाहर वन में स्थित एक आश्रम के आचार्य थे। राजा ने आश्रम में पढ़ने वाले निर्धन बालकों की सहायता के लिए उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं। ऋषि ने कृतज्ञता व्यक्त की, परंतु उन्होंने कहा कि वे इस शुभ अवसर पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण से आए हैं।

राजा विक्रमादित्य ने उनके आने का उद्देश्य पूछा। तब ऋषि ने बताया कि आज सुबह उन्होंने अपने कुछ विद्यार्थियों को वन में लकड़ियाँ लाने भेजा था। अचानक दो भयंकर राक्षस वहाँ प्रकट हुए और छह बालकों को उठा ले गए। बाद में उन राक्षसों ने संदेश भेजा कि यदि ऋषि एक युवक क्षत्रिय को बलि के लिए नहीं भेजते, तो वे उन छहों बालकों की बलि चढ़ा देंगे। ऋषि ने तुरंत ही वन की ओर प्रस्थान किया और एक पर्वत के निकट उन्हें राक्षसों की भयावह आवाजें सुनाई दीं। उन्होंने बताया कि यदि कोई उन्हें रोकने का प्रयास करेगा तो वे बच्चों को मार देंगे।

ऋषि ने यह भी कहा कि उन्होंने राक्षसों से स्वयं को बलि के लिए प्रस्तुत किया, परंतु राक्षसों ने कहा कि उन्हें केवल एक युवा क्षत्रिय की बलि चाहिए। यह सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने दृढ़ स्वर में कहा कि एक राजा का पहला कर्तव्य अपनी प्रजा की रक्षा करना है। यदि वे उन निरपराध बच्चों को नहीं बचा सके, तो उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने ऋषि को आश्वस्त किया कि वे उन बच्चों को अवश्य मुक्त कराएँगे और उनसे अनुरोध किया कि वे अपने आश्रम लौटकर प्रतीक्षा करें।

ऋषि उन्हें आशीर्वाद देकर चले गए। राजा विक्रमादित्य तुरंत अपने घोड़े पर सवार हुए और बच्चों की खोज में घने वन की ओर निकल पड़े। कुछ समय बाद वे उस पर्वत के तल तक पहुँच गए। उन्होंने घोड़ा वहीं बाँध दिया और पथरीले, कठिन मार्ग को पार करते हुए ऊपर की ओर चढ़ने लगे। बड़े संघर्ष के बाद वे उस स्थान तक पहुँचे जहाँ दोनों राक्षस उपस्थित थे। दोनों राक्षसों ने विकृत हँसी के साथ उनका स्वागत किया और कहा कि वे सचमुच अकेले ही आ गए हैं।

राजा ने निर्भीक स्वर में कहा कि वे अकेले ही आए हैं और पहले उन छह बच्चों को मुक्त किया जाए, उसके बाद वे स्वयं बलि के लिए प्रस्तुत हो जाएँगे। एक राक्षस ने दूसरे से कहा कि पहले वह बच्चों को जंगल में छोड़ आए जबकि दूसरा राजा को देवी काली की विशाल प्रतिमा के पास ले जाए। कुछ देर बाद दोनों राक्षस तैयारियों के साथ वहाँ एकत्र हुए। उन्होंने राजा के मस्तक पर तिलक लगाया और उन्हें झुकने का आदेश दिया। तभी एक राक्षस ने तलवार उठा ली और सब कुछ अंतिम क्षणों की ओर बढ़ता दिखा।

लेकिन अचानक ही दूसरा राक्षस तलवार दूर फेंक देता है और पहला राक्षस राजा विक्रमादित्य को गले लगाता है। उसके स्वर में कठोरता की जगह सम्मान था। उसने कहा कि राजा वास्तव में सच्चे और आदर्श शासक हैं, जो अपनी प्रजा के लिए अपने प्राणों तक का त्याग करने को तैयार हैं। अगले ही क्षण दोनों राक्षस अपना वास्तविक दिव्य रूप धारण कर लेते हैं। वे देवराज इंद्र और पवनदेव वायु थे। इंद्रदेव ने कहा कि वे राजा विक्रमादित्य की परीक्षा लेने आए थे और वे इस कठिन परीक्षा में पूर्णतः सफल हुए। दोनों देवताओं ने राजा को आशीर्वाद दिया और आकाश में विलीन हो गए।

राजा वापस लौटे तो पूरे उज्जयिनी नगर में उनके प्रति सम्मान और बढ़ गया, क्योंकि उनके त्याग और निष्ठा की चर्चा हर दिशा में फैल चुकी थी।

कथा समाप्त करते हुए मधुमालती पुतली ने राजा भोज को संबोधित करके कहा कि उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए कि क्या उन्होंने अपनी प्रजा के लिए कभी ऐसा त्याग किया है। यदि हाँ, तो वे इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं, अन्यथा उन्हें वापस लौट जाना चाहिए। यह सुनकर राजा भोज गहरे विचार में पड़ गए और निराश मन से अपने महल लौट आए।

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