सिंघासन बत्तीसी—यानी “बत्तीस कथाओं वाला सिंहासन”—भारतीय लोककथाओं का एक अनमोल खजाना है। यह सिर्फ कहानियों का संग्रह नहीं है, बल्कि एक ऐसी कालजयी कृति है जिसमें इतिहास, कल्पना और नैतिक शिक्षा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
कहानी की शुरुआत होती है 11वीं शताब्दी के विद्वान और पराक्रमी सम्राट राजा भोज से। एक दिन उन्हें एक अद्भुत सिंहासन मिलता है—ऐसा सिंहासन जो किसी साधारण राजा का नहीं, बल्कि अत्यंत प्रसिद्ध और न्यायप्रिय सम्राट विक्रमादित्य का था। लेकिन इस सिंहासन का चमत्कार यहीं समाप्त नहीं होता। इस पर जड़ी 32 मूर्तियाँ वास्तव में अप्सराएँ थीं, जिन्हें श्रापवश पत्थर का रूप मिला था।
जब राजा भोज इस सिंहासन पर बैठने का प्रयास करते हैं, तो एक-एक करके सभी अप्सराएँ जीवित हो उठती हैं। हर अप्सरा एक नई कथा सुनाती है—एक ऐसी कथा जो विक्रमादित्य की वीरता, त्याग, न्यायप्रियता और अद्भुत बुद्धिमत्ता को उजागर करती है। इन कहानियों के माध्यम से वे राजा भोज को परखती हैं कि क्या उनमें भी वही गुण हैं जो महाराज विक्रमादित्य में थे।
हजारों वर्षों से सुनाई और दोहराई जाने वाली ये कथाएँ मूल रूप से संस्कृत कृति “सिंहासन द्वात्रिंशिका” पर आधारित हैं। समय के साथ इनका रूप बदलता गया और आज इन्हें सिंघासन बत्तीसी के नाम से जाना जाता है। ये कहानियाँ न सिर्फ मनोरंजक हैं बल्कि जीवन के महत्वपूर्ण मूल्य—न्याय, साहस, ईमानदारी और नेतृत्व—भी सिखाती हैं।
आज भी सिंघासन बत्तीसी पाठकों को अपने अलौकिक संसार में खींच लेती है और हमें एक ऐसे युग में ले जाती है जहाँ राजा सिर्फ शासक नहीं, बल्कि आदर्श पुरुष माने जाते थे।
राजा भोज और चंद्रभान: न्याय, बुद्धिमानी और रहस्यमयी सिंहासन की कथा
बहुत समय पहले, उज्जैन राज्य पर राजा भोज का शासन था। वे न्यायप्रिय, दयालु और उदार शासक थे। उनके राज्य के लोग अत्यंत सुखी और समृद्ध थे। राजा भोज अपने प्रजाजनों के बीच बहुत लोकप्रिय थे।
उनके राज्य में एक कुम्हारों का गाँव था। वहाँ के कुम्हार दिन-रात मेहनत करते और सुन्दर मिट्टी के बर्तन बनाते थे। उनके बनाए बर्तन पूरे राज्य में प्रसिद्ध थे और अच्छी कीमत पर बिकते थे। इसलिए गाँव का हर कुम्हार सम्पन्न और खुशहाल था।
इसी गाँव में बृजबान नाम का एक गड़रिया भी रहता था। लोग उसे प्यार से ‘लंबू’ कहते थे। लंबू का पड़ोसी एक मोची था—चतुरी। दोनों अच्छे मित्र थे। वे एक-दूसरे को बहुत मानते थे, लेकिन एक दिन दोनों के बीच घरों के बीच दीवार बनाने को लेकर झगड़ा हो गया। इस घटना के बाद दोनों कट्टर दुश्मन बन गए। चतुरी हर समय लंबू से बदला लेने का मौका ढूँढ़ता था, जबकि बृजबान किसी से बदला लेने के बारे में सोचता भी नहीं था।
बृजबान का एक बेटा था—चंद्रभान। वह बलवान और तन्दुरुस्त था। अपने पिता की तरह वह भी भेड़-बकरियाँ चराने जाता था। चंद्रभान भला-सादा दिखता था, परंतु बुद्धिमान बहुत था। वह जानवरों को खुला चरने देता और खुद पेड़ के नीचे सो जाता। शाम को वे सब खुद उसके पास लौट आते। लोग समझने लगे कि चंद्रभान में कोई अलौकिक शक्ति है। ईर्ष्या में लोग उसे आलसी और मूर्ख कहने लगे।
एक दिन चंद्रभान दोपहर की नींद से जागा तो उसे कुछ अजीब लगा। उसने अपने साथी चरवाहों से जोर से पूछा, “तुम सब कहाँ थे? दूसरों को भी बुलाओ!”
उसका व्यवहार देखकर वे डर गए। फिर उसने पूछा, “हमारा राजा कौन है?”
एक चरवाहे ने कहा, “क्या तुम नहीं जानते? हमारे राजा भोज हैं।”
यह सुनते ही चंद्रभान क्रोधित हो उठा—“वह राजा मूर्ख है! उसे न्याय करना नहीं आता। उसे पकड़कर मेरे सामने लाओ!”
चरवाहे डरकर भाग गए। कुछ देर बाद चंद्रभान सामान्य हो गया और अपनी बकरियों के साथ घर लौट आया। रात को साथी चरवाहे उससे मिलने आए और दिन की घटना बताई, पर चंद्रभान को विश्वास नहीं हुआ।
दूसरी ओर चतुरी को यह सब पता चला। वह बहुत खुश हुआ। उसे लगा कि अब बृजबान से बदला लेने का सही मौका मिल गया है।
अगले दिन वह छुपकर चंद्रभान का पीछा करने लगा। कुछ समय बाद उसने देखा कि चंद्रभान एक टीले पर जाकर पेड़ के नीचे सो गया।
कुछ देर बाद चंद्रभान उठा और देखा कि दो व्यक्ति घोड़े को लेकर लड़ रहे हैं। भीड़ भी जमा हो गई। चंद्रभान ने बहुत समझदारी से विवाद सुलझा दिया। लोग उसकी न्यायप्रियता देखकर हैरान रह गए।
आने वाले दिनों में चंद्रभान ने कई विवाद सुलझाए—दो स्त्रियों का झगड़ा, कई लोगों की समस्याएँ… धीरे-धीरे वह अपने ज्ञान और न्याय के लिए प्रसिद्ध हो गया। चतुरी यह सब देखकर और जलने लगा। उसने शहर के पहरेदारों को चंद्रभान की शिकायत कर दी।

जब राजा भोज को पता चला, तो वे बोले, “अच्छी बात है कि कोई इतना सक्षम है कि कठिन मामलों को भी समझदारी से निपटा रहा है।”
चतुरी ने कहा, “लेकिन महाराज, ऐसा करके वह आपकी हँसी उड़ा रहा है।”
इस पर राजा भोज ने अधिकारियों को चंद्रभान पर नज़र रखने का आदेश दिया।
कुछ समय बाद एक ब्राह्मण, उसकी पत्नी और उसका मित्र राजा भोज के दरबार में उपस्थित हुए। ब्राह्मण ने शिकायत की कि उसने अपना कीमती मोती अपने मित्र के पास रखवाया था, पर उसने लौटाए नहीं। मित्र ने कहा कि उसने तो मोती ब्राह्मण की पत्नी को दे दिए थे, पर पत्नी ने इस बात से इनकार कर दिया।
राजा भोज ने गवाह बुलवाए—गाँव का मुखिया और मंदिर का पुजारी। दोनों ने कहा कि मोती पत्नी को ही दिए गए थे। राजा ने निर्णय दिया कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी झूठ बोल रहे हैं, इसलिए उन्हें या तो क्षमा मांगनी चाहिए या दंड भरना चाहिए।
ब्राह्मण ने प्रार्थना की—“महाराज, क्या मैं चंद्रभान से न्याय मांग सकता हूँ? वह न्यायप्रिय माना जाता है।”
राजा भोज सहमत हुए और स्वयं एक साधारण नागरिक के वेश में उसके पीछे-पीछे टीले तक पहुँचे।
चंद्रभान ने सबकी बातें सुनीं और दोनों गवाहों से मोतियों के आकार-रंग के बारे में पूछा। मुखिया ने कहा—“नींबू जितने बड़े और नीले।”
पुजारी ने कहा—“चना जितने छोटे और लाल।”
स्पष्ट था कि दोनों झूठ बोल रहे थे। चंद्रभान ने ब्राह्मण के मित्र को डांटा—“तूने इन्हें झूठ बोलने के लिए कितना पैसा दिया?”
डर के मारे उसने सारा सच बता दिया और मोती लौटाने का वचन दिया।
राजा भोज चंद्रभान की बुद्धि और न्याय देखकर दंग रह गए।
उन्होंने स्वयं को प्रकट किया और पूछा, “एक साधारण चरवाहे का पुत्र होकर तुम इतना न्याय कैसे कर लेते हो?”
चंद्रभान ने कहा, “महाराज, यह इस टीले की शक्ति है। यहाँ बैठते ही मैं साहसी और न्यायप्रिय बन जाता हूँ।”
राजा भोज ने टीले की खुदाई का आदेश दिया। कई दिनों की मेहनत के बाद वहाँ से एक अद्भुत, स्वर्णिम सिंहासन मिला। उसके चारों ओर आठ-आठ सुंदर प्रतिमाएँ थीं—देवियों जैसी आकर्षक। राजा भोज ने उसे राजदरबार में स्थापित किया।
परन्तु जैसे ही वे उस पर बैठने लगे, सभी प्रतिमाएँ हँस पड़ीं। राजा चौंक गए और पीछे हट गए।