अग्निदेव का वरदान | The Blessing of Agni Dev

अग्निदेव का वरदान | The Blessing of Agni Dev

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अग्निदेव का वरदान 

बहुत समय पहले की बात है। उत्तरी पर्वतों से घिरे एक शांत और समृद्ध राज्य का नाम था अग्निकाश। यह राज्य कृषि, संस्कृति और देवपूजा के लिए प्रसिद्ध था। लोग प्रकृति की पूजा करते और विशेष रूप से अग्निदेव का आभार मानते, क्योंकि उनका विश्वास था कि अग्निदेव ही राज्य में उष्मा, जीवन, वर्षा और समृद्धि का कारण हैं। अग्निकाश के मध्य एक विशाल अग्निमंदिर था जिसकी रक्षा का दायित्व पीढ़ियों से एक ही वंश निभाता आया था—अग्निकुल।

अग्निकुल का वर्तमान रक्षक था युवा और निडर आर्यमान। वह अपने माता-पिता की एकमात्र संतान था, पर उसका हृदय सेवाभाव से इतना भरा हुआ था कि वह कभी अकेलापन महसूस नहीं करता था। बचपन से ही उसने अग्निदेव की सेवा सीखी थी। जो भी काम उसे दिया जाता, वह अत्यंत निष्ठा से पूरा करता। आर्यमान में एक अद्भुत गुण था—उसे आग से कभी भय नहीं लगता था। अग्निकुण्ड के पास खड़े रहने पर भी उसे जलन या गर्मी महसूस नहीं होती थी। लोग कहते कि यह कोई दैवी संकेत है। ऋषितेज, जो राज्य के सबसे बड़े विद्वान और मंदिर के आचार्य थे, हमेशा मुस्कुराकर कहते, “अग्नि हर किसी को अपने पास नहीं आने देती। यह वरदान किसी विशेष कारण से तुम्हें मिला है, आर्यमान।”

एक रात मंदिर के भीतर गहरी शांति थी। आर्यमान अकेले अग्निकुण्ड के पास बैठा दीपक बदल रहा था कि अचानक अग्नि की लपटें तेज़ हो उठीं। वह चौंककर खड़ा हुआ, पर इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, लपटों के भीतर से एक गंभीर और स्पष्ट स्वर गूंजा—“समय आ गया है, आर्यमान।” वह भयभीत भी हुआ और विस्मित भी। उसने इधर-उधर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। अग्नि के भीतर से स्वर ने दोबारा कहा—“तुम्हें धर्म की रक्षा करनी होगी। एक बड़ा संकट आने वाला है।”

आर्यमान तुरंत ऋषितेज के पास पहुँचा और सारी घटना बताई। ऋषितेज ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “यह संकेत साधारण नहीं है। इसका अर्थ है कि उस पुरानी भविष्यवाणी का समय निकट है जिसमें कहा गया था कि जब उत्तर पर्वतों से काला धुआँ उठेगा, तब दुष्ट असुर उग्रासुर जागेगा। वही हुआ है। हमें सूचना मिली है कि पर्वतों के ऊपर काला धुआँ उभर रहा है।” फिर उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “उग्रासुर को सहस्रों वर्ष पहले अग्निदेव ने स्वयं परास्त कर इन पर्वतों की गहरी गुफाओं में कैद किया था। यदि वह मुक्त हुआ, तो आग का विनाशकारी रूप संसार को निगल सकता है। उसे रोकना तुम्हारा कर्तव्य है।”

आर्यमान ने बिना संकोच कहा, “मैं तैयार हूँ, आचार्य। यदि यह मेरे जन्म का उद्देश्य है, तो मैं पीछे नहीं हटूँगा।”
ऋषितेज ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “तुम्हें अपनी छिपी शक्ति को भी पहचानना होगा। तुम्हारे भीतर जो अग्नि है, वही तुम्हारा सबसे बड़ा अस्त्र बनेगी।”

अगले दिन आर्यमान यात्रा पर निकल पड़ा। उसे पर्वतों की ओर जाना था, जहाँ रास्ते कठिन, ठंड असहनीय और जंगल खतरनाक थे। लेकिन उसका मन अडिग था। पहले जंगल में प्रवेश करते ही उसे एक विचित्र अनुभूति हुई। पेड़ों के बीच एक लंबी छाया हिली और उसके ठीक सामने एक विशाल वनरक्षक प्रकट हुआ। उसकी आँखें अग्नि जैसे चमक रही थीं। उसने गंभीर स्वर में कहा, “धर्म का मार्ग कठिन है, योद्धा। क्या तुम बिना भय के आगे बढ़ सकते हो?”
आर्यमान ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “यदि भय होता, तो मैं यहाँ तक न आता। मेरे कदमों को कर्तव्य आगे बढ़ा रहा है।” वनरक्षक ने शांत होकर कहा, “तो आगे जाओ, लेकिन याद रखो—तुम्हारी परीक्षा अभी शुरू हुई है,” और वह गायब हो गया।

आगे बर्फीले पर्वत आने लगे। ठंडी हवाएँ जैसे शरीर को चीर रही थीं, पर आर्यमान अडिग था। रात होते-होते अंधेरा गहराने लगा। तभी उसे लगा कि कोई उसे देख रहा है। वह मुड़ा तो पाया कि एक वृद्ध ऋषि बर्फ पर बैठे ध्यान कर रहे थे। उनकी आँखों में अद्भुत तेज था। उन्होंने कहा, “आर्यमान, मुझे पता था कि तुम आओगे। तुम्हारे भीतर जो अग्नि है, वह सोई हुई शक्ति है। इसे जागृत किए बिना तुम उग्रासुर का सामना नहीं कर सकते।”
फिर ऋषि ने अपनी हथेली उठाई। उसमें एक छोटी अग्नि जली और स्थिर हो गई। उन्होंने कहा, “यह अग्नि तुम्हारी आत्मा जैसी है। इसे पहचानो, नियंत्रित करो।”
आर्यमान ने आँखें बंद कीं। उसने महसूस किया कि उसके भीतर एक गर्मी है, जैसे कोई प्रकाश स्रोत उसके हृदय में धड़क रहा हो। अचानक उसकी हथेली में भी एक चमकदार अग्नि-रेखा उभर आई। वृद्ध ऋषि मुस्कुराए और बोले, “याद रखना, अग्नि केवल शक्ति नहीं, बल्कि सत्य, त्याग, और सुरक्षा का प्रतीक है।”

कई दिनों के बाद वह उस गुफा तक पहुँचा जहाँ उग्रासुर कैद था। वह स्थान बहुत बड़ा और अंधकारमय था। जैसे ही आर्यमान अंदर गया, एक प्रचंड गर्जना गूँजी। धुएँ से बनी एक विशाल आकृति प्रकट हुई। यही उग्रासुर था—उसकी आँखें दहकते कोयले जैसी, और आवाज़ गरजते पर्वत जैसी।
उग्रासुर ने कहा, “मनुष्य! तुम आग की शक्ति से खेलना चाहते हो? मैं हूँ विनाश की अग्नि। मैं संसार को अपनी ज्वाला में समा लूँगा!”
आर्यमान ने स्थिर स्वर में उत्तर दिया, “अग्नि का अर्थ विनाश नहीं, संरक्षण है। जिस शक्ति के नाम पर तुम आतंक फैलाना चाहते हो, उसी का संदेश तुम्हें रोकने के लिए मुझे मिला है।”

उग्रासुर ने क्रोध में अग्नि का तूफानी वार किया। गुफा गर्म होकर पिघलने लगी। पर आर्यमान ने अपनी अग्नि-रेखा उठाकर पूरी शक्ति से वार को रोका। दोनों की अग्नियाँ टकराईं और तेज़ प्रकाश फैल गया। युद्ध भयंकर था। उग्रासुर के वार भारी थे, लेकिन आर्यमान की आस्था और नियंत्रण उससे भी अधिक प्रबल थी।

अचानक उसे वृद्ध ऋषि के शब्द याद आए—“अग्नि संरक्षण है।” उसने अपनी पूरी शक्ति केंद्रित की और अग्नि-रेखा को दोनों हाथों से पकड़कर एक प्रचंड वार किया। उग्रासुर की दुष्ट आग कमजोर होने लगी। उसने अंतिम प्रयास किया, पर आर्यमान ने एक और शक्तिशाली वार किया। उग्रासुर चीखा, कमजोर पड़ा और राख की तरह विलीन हो गया।

उसी क्षण गुफा चमक उठी। एक उज्ज्वल प्रकाश के बीच अग्निदेव प्रकट हुए। उनका स्वर गूंजा, “आर्यमान, तुमने अपने साहस, निष्ठा और सत्य के बल पर इस संसार को विनाश से बचाया है। तुमने सिद्ध किया कि सच्ची शक्ति वह है जो संरक्षण करे।”
फिर अग्निदेव ने एक ही लाइन में कहा, “आज से तुम्हें अमर अग्निशक्ति प्रदान होती है और जब तक तुम्हारा हृदय धर्म के मार्ग पर अडिग रहेगा, यह शक्ति सदैव तुम्हारे साथ रहेगी।”
आर्यमान ने विनम्र भाव से सिर झुकाया और अग्निदेव का आशीर्वाद स्वीकार किया।

वापसी पर अग्निकाश में उत्सव मनाया गया। लोग उसकी वीरता की कहानियाँ बच्चों को सुनाने लगे। आर्यमान फिर से अग्निमंदिर का रक्षक बना, लेकिन अब उसके भीतर की अग्नि सिर्फ शक्ति नहीं, बल्कि प्रेरणा, प्रकाश और आशा बन चुकी थी। लोग कहते थे कि सच्चा योद्धा वही है जो शक्ति को नियंत्रण में रखकर दूसरों की रक्षा करे।

शिक्षा: शक्ति तभी सार्थक है जब उसका उपयोग भलाई, सत्य और संरक्षण के लिए किया जाए।

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