अर्जुन-का-अभिमान-भंग---The-Gandiva-Bow-of-Arjuna

अर्जुन का गाण्डीव धनुष – The Gandiva Bow of Arjuna

नैतिक कहानियाँ

अर्जुन का गाण्डीव धनुष

एक दिन अर्जुन मथुरा में भगवान कृष्ण से मिलने पहुँचे। उस समय तक अग्निदेव ने महान धनुर्धर अर्जुन को दिव्य गाण्डीव धनुष प्रदान कर दिया था। गाण्डीव के साथ, अर्जुन का आत्मविश्वास इतना बढ़ गया था कि वह स्वयं को जीवित सर्वश्रेष्ठ योद्धा मानने लगे। उन्होंने भगवान कृष्ण से कहा कि अब वह सर्वशक्तिमान हैं। भगवान कृष्ण ने केवल सिर हिलाया, मुस्कुराए और चुप रहे।

तभी एक ब्राह्मण भगवान कृष्ण के महल के द्वार पर आकर खड़ा हो गया, जहाँ वे दोनों खड़े थे। ब्राह्मण अश्रुपूर्ण था। स्वयं को सक्षम मानते हुए अर्जुन ने उसे रोकने और अपनी समस्या बताने को कहा। ब्राह्मण ने बताया कि उसके नौ पुत्र हुए थे, परंतु ज्यों ही वह नवजात शिशु को हाथ में लेकर झोपड़ी से बाहर कदम रखता, अदृश्य शक्तियाँ उसे छीन ले जाती थीं।

अर्जुन ने कहा कि वह ब्राह्मण की अगली संतान की रक्षा करेंगे। उन्होंने ब्राह्मण से अगले बच्चे के जन्म की सूचना देने को कहा, ताकि वह शक्तिशाली गाण्डीव धनुष लेकर उसकी झोपड़ी की रक्षा कर सकें। कुछ महीनों बाद, ब्राह्मण ने अर्जुन को सूचित किया कि उसकी पत्नी कुछ दिनों में प्रसव करेगी।

अर्जुन अपने वचन के अनुसार ब्राह्मण के घर के द्वार पर पहरा देने लगे। अगले दिन ब्राह्मण की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, किंतु कुछ ही मिनटों में ब्राह्मण विलाप करता हुआ बाहर दौड़ा। उसने अर्जुन से कहा कि पहले के नौ बच्चे तो घर के बाहर आने पर गायब हुए थे, पर यह बच्चा तो घर के भीतर ही लुप्त हो गया है। उसने इस दुर्घटना का दोष अर्जुन के बाहर खड़े होने को दिया।

अर्जुन ने ब्राह्मण से वचन दिया कि वह उसके दसवें पुत्र को तीनों लोकों – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में खोजकर लाएँगे, अन्यथा स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देंगे। अर्जुन ने पाताल और पृथ्वी का विस्तृत खोज किया, परंतु बच्चा कहीं नहीं मिला। अंततः वह स्वर्ग पहुँचे और वहाँ भगवान विष्णु के समीप दस दिव्य, कांतिमय और सुंदर बालक खेलते हुए देखे।

तत्क्षण ही अर्जुन को समझ आ गया कि यह स्वयं भगवान की माया या दिव्य लीला है, जो अर्जुन को यह दिखाना चाह रहे थे कि केवल शक्तिशाली गाण्डीव धनुष का धारण कर लेने से कोई अजेय या सर्वशक्तिमान नहीं बन जाता।

शिक्षा: इस कथा से हमें शिक्षा मिलती है कि हमारे पास चाहे कितनी भी शक्ति और संपदा क्यों न हो, यदि हम अभिमान के वशीभूत हो जाएँ, तो न तो हम ईश्वर की लीला को समझ पाएँगे और न ही उनकी विशाल योजना में अपने सूक्ष्म स्थान का बोध कर पाएँगे। विनम्रता ही सच्ची शक्ति का आधार है।

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