देववृक्ष का रहस्य
प्राचीन समय की बात है, जब देवता, मनुष्य और असुर सभी पृथ्वी पर अपने-अपने कार्यों में लगे रहते थे। हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों के बीच एक पवित्र आश्रम था जहाँ महान ऋषि वत्स तपस्या करते थे। आश्रम के चारों ओर शांति और प्रकृति की सुंदरता फैली हुई थी। वहाँ का सबसे अनोखा और पवित्र स्थान था आश्रम के केंद्र में स्थित चमकता हुआ देववृक्ष। यह वृक्ष इतना उज्ज्वल था कि उसकी पत्तियाँ रात में भी हल्की रोशनी देती थीं। कहा जाता था कि यह वृक्ष इंद्रदेव द्वारा ऋषि वत्स को दिया गया वरदान था।
देववृक्ष की छाया में बैठने से मन में शांति, हृदय में पवित्रता और विचारों में प्रकाश उत्पन्न होता था। ऋषि वत्स के अनुसार इस वृक्ष की जड़ों के नीचे एक ऐसा रहस्य छुपा था, जिसे कोई भी साधारण मनुष्य जान नहीं सकता था। इसलिए उन्होंने एक महत्वपूर्ण नियम बनाया था—कोई भी शिष्य देववृक्ष की जड़ों के पास नहीं जाएगा।
आश्रम में कई शिष्य सीखते थे, पर उनमें सबसे अलग था अर्णव, एक जिज्ञासु और साहसी बालक। अर्णव हर बात का कारण जानना चाहता था। वह देववृक्ष को घंटों तक देखता और सोचता रहता कि आखिर उसकी जड़ों में ऐसा क्या है जिसे देखने तक की मनाही है। एक दिन वह हिम्मत करके ऋषि वत्स के पास पहुँचा और बोला, “गुरुदेव, क्या मैं जान सकता हूँ कि देववृक्ष की जड़ों के पास जाने की मनाही क्यों है?”
ऋषि वत्स मुस्कुराए और बोले, “अर्णव, हर रहस्य का समय होता है। जब तक सही समय न आए, ज्ञान देना व्यर्थ होता है। जो शक्ति समय से पहले प्राप्त की जाए, वह लाभ नहीं, बल्कि हानि दे सकती है।”
अर्णव यह सुनकर शांत तो हो गया, लेकिन उसके मन की जिज्ञासा और बढ़ गई।
इसी बीच एक रात अचानक मौसम बदल गया। हवा तेज़ होने लगी, बादल गरजने लगे और आकाश में बिजली चमकने लगी। अर्णव सो नहीं पा रहा था। उसे लगा जैसे हवा में कोई विचित्र संकेत है। वह बाहर निकला और उसकी नज़र देववृक्ष पर पड़ी। वृक्ष के आस-पास काला धुआँ घूम रहा था और धीरे-धीरे वह धुआँ एक काली छाया का रूप ले रहा था। वह छाया देववृक्ष की जड़ों की ओर बढ़ रही थी।
अर्णव डर गया। वह दौड़कर ऋषि वत्स को बुलाने गया। “गुरुदेव, देववृक्ष खतरे में है!”
ऋषि वत्स तुरंत बाहर आए। उन्होंने मंत्र पढ़कर एक दिव्य शंख बजाया। शंख की ध्वनि से काली शक्ति एक पल के लिए थम गई। ऋषि बोले, “यह वही समय है, जिससे मैं वर्षों से आश्रम की रक्षा कर रहा था। देववृक्ष की जड़ों के नीचे अमृतबीज है—एक ऐसा दिव्य बीज जिसे पाने से जीवन, शक्ति और सत्ता पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यदि यह काली शक्ति इसे पा ले, तो संसार के लिए संकट उत्पन्न हो जाएगा।”
अर्णव ने पूछा, “गुरुदेव, हम इसे कैसे बचाएँ?”
ऋषि वत्स ने गंभीर स्वर में कहा, “अर्णव, आज रात मेरी शक्तियाँ कमजोर हो गई हैं। मुझे किसी साहसी की आवश्यकता है जो देववृक्ष की रक्षा कर सके। क्या तुम तैयार हो?”
अर्णव ने बिना सोचे कहा, “मैं तैयार हूँ गुरुदेव। अपने जीवन से अधिक इस वृक्ष की रक्षा महत्वपूर्ण है।”
ऋषि वत्स ने उसे एक दिव्य माला दी और कहा, “यह तुम्हें बुरी शक्तियों से बचाएगी। याद रखना, असली शक्ति तुम्हारी निष्ठा और साहस में है।”
अर्णव देववृक्ष की ओर बढ़ा। काली छाया उसे देखकर गरजी, “हट जाओ बालक! मुझे कोई नहीं रोक सकता!”
अर्णव डर तो रहा था, पर पीछे नहीं हटा। उसने दृढ़ आवाज़ में कहा, “देववृक्ष की रक्षा करना मेरा धर्म है। तुम इसे छू भी नहीं सकती।”
काली छाया ने अपने अंधकारमय हाथ फैलाकर अर्णव पर हमला किया। पर जैसे ही वह हाथ दिव्य माला के प्रकाश के पास आया, जलने लगा। काली शक्ति चिल्लाई और पीछे हट गई। अब उसका गुस्सा और बढ़ गया था। वह तूफ़ान की गति से अर्णव की ओर बढ़ी, पर अर्णव ने माला उठाकर जोर से “ओम् दीपज्योति नमः” मंत्र बोला। माला से तेज प्रकाश निकला और काली छाया का आधा भाग नष्ट हो गया।
काली शक्ति अब क्रोधित होकर बोली, “तुम मुझे नहीं रोक सकते छोटे बालक। मैं अमृतबीज लेकर रहूँगी।”
अर्णव ने हिम्मत न हारते हुए कहा, “जो सच्चाई के मार्ग पर चलता है, उसे कोई नहीं हरा सकता।”
काली शक्ति ने अर्णव को भटकाने की कोशिश की। उसने मायावी रूप धारण किए—कभी सोना, कभी शक्तियाँ, कभी सिंहासन। पर अर्णव ने आंखें बंद कर लीं और मन में गुरुदेव की शिक्षा को याद किया—“सच्ची शक्ति मन की स्थिरता में है।”
जब अर्णव ने आँखें खोलीं, उसने देखा कि काली शक्ति कमजोर होने लगी है। अर्णव ने माला उठाई और देववृक्ष की जड़ों की ओर फैलाकर मंत्र पढ़ा। अचानक वृक्ष की जड़ों से दिव्य प्रकाश फूटा। उस प्रकाश ने काली शक्ति को चारों ओर से घेर लिया। उसने आखिरी बार चीखकर कहा, “मैं फिर लौटूंगी…”
और देखते ही देखते वह हवा में विलीन हो गई।
आसमान शांत हो गया। हवाएँ रुक गईं। वृक्ष की रोशनी और अधिक चमकने लगी।
ऋषि वत्स अर्णव के पास आए और बोले, “आज तुमने न केवल देववृक्ष की रक्षा की, बल्कि इस संसार को बड़े संकट से बचाया है। तुम सच्चे अर्थों में धर्म और साहस के रक्षक हो।”
अर्णव के भीतर सम्मान और गर्व की भावनाएँ उमड़ आईं। उसने गुरुदेव के चरणों में सिर झुका दिया। उस दिन से अर्णव को आश्रम में विशेष स्थान मिला। उसे देववृक्ष के रहस्य की रक्षा का दायित्व दिया गया। वह हर दिन अपने साहस, तपस्या और ज्ञान से और अधिक महान बनता गया। और देववृक्ष की दिव्यता उसके साथ बढ़ती रही।
इस प्रकार एक छोटे बालक ने अपने साहस, निष्ठा और विश्वास के बल पर एक महान पौराणिक रहस्य की रक्षा की और यह सिद्ध किया कि सच्चा बल भीतर से आता है।