विक्रम और बेताल: स्वार्थ और कर्तव्य की लड़ाई
रात का समय था। श्मशान भूमि पर हल्की धुंध का घेरा फैला हुआ था। हवा की तीखी सीटी जैसी आवाजें कानों में कौंध रही थीं, और सूखे पेड़ों की टहनियाँ आपस में टकराकर डरावनी ध्वनि पैदा कर रही थीं। चारों ओर अजीब परछाइयाँ बन रही थीं, मानो मृत आत्माएँ अपनी अनसुनी कहानियाँ सुनाने के लिए जाग रही हों। उसी भयानक वातावरण में राजा विक्रमादित्य कदम दर कदम आगे बढ़ रहे थे। उनके कंधे पर बेताल लटक रहा था, और उसका तेज दृष्टि भरी मुस्कान हर पल विक्रम को चुनौती देती रहती थी।
बेताल ने धीमे से हँसते हुए कहा, “राजा, तुम्हारी अद्भुत धैर्य और साहस हर बार मुझे चकित कर देता है। हर बार तुम मुझे पकड़ते हो, अपनी थकान और डर को भुलाकर, और फिर मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे मुक्त कर देते हो। आज भी यही कारण है कि मैं तुम्हारे साथ उड़ रहा हूँ। बताओ, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता?”
विक्रम ने शांत लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, “मुझे डर आता है, पर मेरी कर्तव्य की भावना मुझे आगे बढ़ने देती है। मनुष्य केवल शरीर से नहीं, बल्कि उसके वचन और कर्म से पहचाना जाता है। जब तक मेरा कार्य पूरा नहीं होता, मैं नहीं रुकूंगा।”
बेताल ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है, राजा। तो सुनो आज की कहानी। यह कहानी है स्वार्थ, कर्तव्य और सही निर्णय की। इसे समझो और जवाब दो, नहीं तो आज की रात तुम्हारे लिए अंतिम हो सकती है।”
बहुत समय पहले, रत्नपुर नामक एक राज्य था। वहाँ का राजा था शशिकांत, जो अपने समय का ज्ञानी और न्यायप्रिय शासक माना जाता था। उसके राज्य में सभी लोग शांत और खुशहाल थे। परंतु उसके पुत्र, युवराज अंशुमान, बचपन से ही तेजतर्रार और महत्वाकांक्षी था। उसका हृदय हमेशा अपनी महानता और शक्ति के स्वप्नों में जलता रहता।
अंशुमान की सोच थी, “मैं सिर्फ राजा नहीं बनूंगा, मैं इतिहास में अमर हो जाऊँगा। लोग मेरी ताकत और नाम से डरेंगे और मेरे पद की तुलना किसी से नहीं की जाएगी।”
राजा शशिकांत अपने पुत्र से प्रेम करते थे, पर वे समझते थे कि शक्ति और स्वार्थ के बीच संतुलन आवश्यक है। उन्होंने कई बार कहा, “सत्ता महान होती है जब उसके साथ दया और विवेक जुड़ा हो। अहंकार में डूबा राजा इतिहास में नाम कमाता है, पर सम्मान नहीं।”
अंशुमान ने पिता की बातों को अनसुना किया। उसकी सोच में केवल सत्ता और व्यक्तिगत लाभ की लालसा थी।
एक दिन राज्य में एक वीरता और बुद्धिमत्ता की परीक्षा आयोजित हुई। अंशुमान हर बार जीतता, और उसकी जीत से उसके हृदय में अहंकार और महत्वाकांक्षा का दहन और तेज होता। राज्य के विद्वानों ने बार-बार चेताया, “संतुलन और विवेक जरूरी हैं। केवल विजय से महानता नहीं आती।” लेकिन अंशुमान ने इसे अनसुना कर दिया।
फिर एक दिन, एक बुजुर्ग साधु राजमहल में आया। उसने अंशुमान को चेतावनी दी, “यदि तुम्हारा स्वार्थ दूसरों की भलाई में परिवर्तित नहीं हुआ, तो तुम्हारी शक्ति बर्बादी में बदल जाएगी।”
अंशुमान ने हँसकर कहा, “भविष्य केवल मेरी इच्छा से बनता है, किसी भविष्यवाणी से नहीं।”
कुछ वर्षों में राजा शशिकांत वृद्ध हो गए। उन्होंने राज्य का कार्य अपने पुत्र को सौंप दिया। अंशुमान ने तुरंत अपनी सेना को मजबूत किया, पड़ोसी राज्यों के साथ रिश्ते तोड़े, और घोषणा की कि केवल ताकत ही सत्य है।
राज्य में डर फैल गया। मंत्री डर से चुप रहे, और जनता अपनी आवाज दबाने लगी। अंशुमान ने घोषणा की कि वह अपने राज्य का विस्तार करेगा, और पहला लक्ष्य था चन्द्रपुर।
मंत्रियों ने कहा, “चन्द्रपुर मित्र राज्य है। शांति बनाए रखना अधिक मूल्यवान है।”
अंशुमान ने कहा, “दुनिया केवल मजबूत को याद रखती है, जो रुकेगा वह मिट जाएगा।”
युद्ध भयानक हुआ। चन्द्रपुर पर विजय प्राप्त हुई, पर जनता में उत्साह नहीं, डर और असंतोष फैला। अंशुमान को अहसास हुआ कि शक्ति केवल विजय से नहीं मिलती, बल्कि कर्तव्य और न्याय से मिलती है।
अगला लक्ष्य था विशालगढ़। मंत्री ने आगाह किया, “युद्ध केवल रक्षा के लिए होना चाहिए, विस्तार और स्वार्थ के लिए नहीं।”
अंशुमान ने उनका विरोध दबा दिया और उन्हें बंदी बना दिया। विशालगढ़ पर विजय के बाद भी उसका राज्य कमजोर हो गया, सेना थक गई और जनता में डर बढ़ गया।
अंशुमान की माँ गंभीर रूप से बीमार हो गई। उनकी मृत्यु के बाद अंशुमान के हृदय में शोक और विवेक की झलक आई। उसने महसूस किया कि महानता केवल स्वार्थ से नहीं, बल्कि संयम और कर्तव्य से मिलती है।
फिर उसने नीलकुंड राज्य के साथ शांति की कोशिश की। नीलकुंड के लोग युद्ध से नहीं, बल्कि धैर्य, बुद्धि और एकता से लड़े। अंशुमान की सेना थक गई, पर उसने सीख लिया कि विजय की राह केवल शक्ति और स्वार्थ से नहीं, बल्कि समझ और न्याय से तय होती है।
अंततः अंशुमान ने घोषणा की कि अब केवल विकास और सुरक्षा की नीति अपनाई जाएगी। घायल सैनिकों और उनके परिवारों की मदद की गई, पड़ोसी राज्यों के साथ व्यापार और मित्रता स्थापित की गई। धीरे-धीरे राज्य फिर समृद्ध और शांत हो गया। अंशुमान का नाम एक अनुभवशील और जिम्मेदार शासक के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
इतना कहकर बेताल चुप हुआ और बोला, “राजा, अब बताओ, इस कहानी में असली दोषी कौन था? क्या केवल अंशुमान की महत्वाकांक्षा दोष थी, या उसके मंत्री और जनता का स्वार्थ भी?”
विक्रम ने गंभीरता से कहा, “दोष केवल महत्वाकांक्षा का नहीं था। सबसे बड़ा दोष था संयम और बुद्धि का अभाव। यदि अंशुमान ने अपनी महत्वाकांक्षा के साथ विवेक और कर्तव्य जोड़ा होता, तो उसका मार्ग उज्ज्वल होता। मंत्री अपनी चुप्पी से दोषी थे, जनता कम दोषी थी, क्योंकि वे शक्तिहीन थे।”
बेताल हँसकर गायब हो गया और विक्रम फिर उसी रास्ते पर आगे बढ़ चले जहाँ उनका अधूरा कर्तव्य उनका इंतज़ार कर रहा था।
शिक्षा: स्वार्थ और महत्वाकांक्षा बुरी नहीं हैं, पर कर्तव्य, संयम, विवेक और दया के बिना ये विनाश का कारण बन सकती हैं।