विक्रम और बेताल: मेहनत और भाग्य की परीक्षा
रात गहरी होती जा रही थी। श्मशान की चिता से उठती मंद लपटें आसमान में अजीब-सी रौशनी फैला रही थीं। पूरा वातावरण भय, मरघट और रहस्य से भरा हुआ था। लेकिन राजा विक्रम एक बार फिर बेताल को पकड़ने के लिए निर्भीकता से आगे बढ़ रहे थे। उनके कदम कठोर, पर मन अडिग था।
पेड़ की डाली पर उल्टा लटका हुआ बेताल मुस्कराया, उसकी आवाज रात की हवा की तरह ठंडी थी।
“राजन, हर बार तुम मुझे पकड़ लेते हो, पर मेरे प्रश्नों के आगे हार जाते हो। इस बार की कहानी सरल नहीं है। क्या सुनोगे?”
विक्रम ने उत्तर दिया, “मैं सत्य और न्याय के लिए निकला हूँ। कहानी कहो बेताल, मैं उत्तर दूँगा।”
बेताल ने धीमे स्वर में कहानी शुरू की—
बहुत समय पहले उत्तर दिशा के शांत प्रदेश में अनंतपुर नाम का नगर था। यह नगर अपनी उपजाऊ भूमि, सरल लोग और मेहनत से जीने वाले किसानों के लिए प्रसिद्ध था। अनंतपुर में दो युवक रहते थे—धर्मपाल और शशिपाल। दोनों एक ही गाँव में बड़े हुए थे, पर स्वभाव एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न।
धर्मपाल मानता था कि मनुष्य की राह उसका परिश्रम तय करता है। वह कहते हुए सुना जाता था, “मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती।” वह सुबह तड़के उठता, खेतों की मेड़ों पर खड़ा होकर दिशा पहचानता, नियम और अनुशासन के साथ हल चलाता। वह पशुओं की सेवा करता, पढ़ना-लिखना सीखता और हर अवसर को गंभीरता से पकड़ता।
दूसरी ओर शशिपाल था। उसका विश्वास था कि मनुष्य का जीवन भाग्य की मोहर से लिखा होता है, और प्रयास से कुछ नहीं बदलता। वह दिन चढ़ने तक सोता रहता, खेतों में काम करने की बजाय बरगद के पेड़ की छाया में बैठा इधर-उधर की बातें करता और ताश खेलना उसका प्रिय शौक था। गाँव वाले उसे समझाते, पर वह हमेशा कहता, “जब विधाता को देना होगा तब अपने आप मिलेगा, क्यों व्यर्थ मेहनत करें?”
समय बीतता गया।
एक वर्ष अनंतपुर में भयंकर अकाल पड़ा। बादल महीनों तक नहीं बरसे। खेत सूख गए, पशु मरने लगे, लोग पानी की एक बूंद के लिए परेशान होने लगे। धरती का रंग फीका पड़ गया और धूप की तपन से पत्तियाँ टूटने लगीं।
धर्मपाल ने पूरे वर्ष का अनाज सँभालकर रखा था। उसने अपनी परिवार की ज़रूरतों के साथ-साथ कुछ अनाज गाँव वालों की मदद के लिए भी सुरक्षित रखा था। वह रोज़ जरूरतमंदों को पानी और भोजन बाँटता, चाहे थोड़ा ही क्यों न हो।
उधर शशिपाल के पास न तो अनाज बचा था, न पशु। उसने अपने धन को कभी संजोकर नहीं रखा था। अब भूख उसे अंदर से तोड़ने लगी। हताश होकर वह धर्मपाल के दरवाजे पहुँचा।
धर्मपाल ने उसे देखा और बिना प्रश्न किए भोजन दे दिया।
“तुम मेरे गाँव के भाई हो,” उसने कहा, “और भूख किसी भी मनुष्य को छोटा कर देती है। पर याद रखना, परिश्रम संकट से बचाने की ढाल होता है।”
शशिपाल ने शर्म से सिर झुका लिया, पर उसकी आदतें फिर भी न बदलीं।
कुछ दिनों बाद राजा ने घोषणा की—
“नगर में एक बड़ी परीक्षा होगी। जो युवक बुद्धिमानी, साहस, विनम्रता और शासन कौशल में श्रेष्ठ सिद्ध होगा, उसे राजकाज का महत्वपूर्ण पद दिया जाएगा। यह पद सम्मान और कर्तव्य दोनों देगा।”
नगर के सभी युवक उत्साहित हुए। धर्मपाल भी इस परीक्षा में सम्मिलित होना चाहता था। उसने पूरी लगन से तैयारी शुरू की। राज्य के नियमों का अध्ययन किया, गणना और लेखन सीखा, घुड़सवारी और शस्त्र-विद्या का अभ्यास किया, और संकटों के समय लोगों की सहायता का तरीका भी जाना।
शशिपाल ने भी भाग लेने का निश्चय किया, पर तैयारी एक दिन भी नहीं की।
“जो होगा, उसे भाग्य ही करवाएगा,” वह कहकर हँसता था।
परीक्षा का दिन आया।
महल का प्रांगण सजाया गया था। राजा और दरबारियों के सामने सैकड़ों युवक खड़े थे। परीक्षा कठिन थी। कभी उन्हें प्रशासनिक प्रश्न पूछे जाते, कभी न्याय निर्णय देना होता, कभी एक जटिल परिस्थिति का समाधान निकालना। कई बार उनके धैर्य की परीक्षा होती, तो कभी उनकी समझ और व्यवहार की।
धर्मपाल हर प्रश्न में शांत और संतुलित था। उसकी आँखों में आत्मविश्वास था और उत्तरों में स्पष्टता। उसके परिश्रम का असर प्रत्येक चरण में दिख रहा था।
शशिपाल, उलझन में था। वह अनुमान लगाता या भाग्य का नाम लेकर उत्तर देता। धन के प्रलोभन में आए लोगों से उसने झूठे वादे भी किए। अंतिम परीक्षा में जब उसे एक दुखी परिजन की समस्या का समाधान देना था, वह साफ शब्दों में बोल भी नहीं पाया।
सभी परीक्षाओं के बाद राजा ने परिणाम घोषित किए—
“सबसे योग्य युवक धर्मपाल है। उसे राजकाज का महत्वपूर्ण पद दिया जाता है।”
पूरा नगर तालियों से गूँज उठा। धर्मपाल विनम्रता से झुककर राजा का आशीर्वाद ले रहा था।
शशिपाल भीड़ में खड़ा था। उसकी आँखों में पछतावा था और मन में कड़वाहट। उसने धर्मपाल से कहा,
“यह सब तुम्हारे भाग्य का खेल है, इसलिए तुम जीत गए।”
धर्मपाल मुस्कराया और बोला,
“नहीं भाई, भाग्य तुम्हारा भी था। पर कर्म तुमने नहीं किए। भाग्य साथ तभी देता है, जब मनुष्य पहले स्वयं प्रयास करे।”
तभी बेताल बोल पड़ा—
“तो बताओ राजन, इस कहानी में किसका मार्ग सही था? क्या जीवन में अधिक महत्वपूर्ण मेहनत है या भाग्य?”
विक्रम ने दृढ़ता से उत्तर दिया,
“भाग्य केवल उसी का हाथ पकड़ता है जो पहले मेहनत करता है। शशिपाल जैसा इंसान प्रयास किए बिना भाग्य को दोष देता है, जबकि धर्मपाल जैसे प्रयासी लोग अपना रास्ता स्वयं बनाते हैं। इसलिए सही मार्ग मेहनत का है, न कि भाग्य पर निर्भर रहने का।”
बेताल ज़ोर से हँसा।
“राजन, तुमने फिर से उत्तर दे दिया। अब मैं वापस जा रहा हूँ।”
कहकर वह हवा में लहराता हुआ पेड़ पर लटक गया।
विक्रम फिर उसे पकड़ने बढ़े—अटल, निडर और अपने संकल्प पर अडिग।