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विक्रम और बेताल: झूठी शान का अंत भाग सत्रह

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: झूठी शान का अंत

रात का अंधेरा गहरा था। श्मशान भूमि पर हल्की धुंध का घेरा फैला हुआ था, और पेड़ों की सूखी शाखाएँ हवा में टकराकर डरावनी ध्वनि पैदा कर रही थीं। चारों ओर गूंजती फुसफुसाहटें और हवा में उड़ते पत्तों की सरसराहट वातावरण को और भी भयानक बना रही थी। उसी डरावने माहौल में राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर बेताल को मजबूती से पकड़कर आगे बढ़ रहे थे। उनके कदमों की आवाज मिट्टी में दबती जा रही थी, लेकिन उनके हृदय में कर्तव्य और न्याय की ज्वाला पहले से अधिक प्रज्वलित थी।

बेताल ने धीमे से हँसते हुए कहा, “राजा, तुम्हारा साहस और धैर्य हमेशा अद्भुत होता है। हर बार तुम मुझे पकड़ते हो, अपनी थकान और डर को भुलाकर, और फिर मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे मुक्त कर देते हो। आज भी यही कारण है कि मैं तुम्हारे साथ उड़ रहा हूँ। पर सुनो, आज की कहानी थोड़ी अलग है। यह झूठी शान, स्वार्थ और विनाश की कहानी है। इसे समझो और जवाब दो।”

विक्रम ने शांत लेकिन दृढ़ आवाज में कहा, “मैं सुनने के लिए तैयार हूँ। सत्य और न्याय की राह पर ही जीवन का मूल्य तय होता है।”

बहुत समय पहले रत्नकोट नामक राज्य था। वहां का राजा था धरणीवर्धन, जो अपने समय का सबसे पराक्रमी और गौरवशाली शासक माना जाता था। परंतु उसके पुत्र, युवराज वीरांश, बचपन से ही तेज, महत्वाकांक्षी और शान में डूबा हुआ था। उसकी सोच थी, “मैं केवल राजा नहीं बनूंगा, मैं अपनी शक्ति और शान से इतिहास में अमर हो जाऊँगा। लोग मेरे नाम से डरें और मेरे सम्मान को नमन करें।”

धरणीवर्धन अपने पुत्र से प्रेम करते थे, पर उन्हें उसकी सोच पर चिंता थी। उन्होंने कई बार कहा, “सत्ता और शान सुंदर होती है जब उसके साथ संयम, विवेक और दया जुड़ी हो। यदि अहंकार हृदय में प्रवेश कर गया, तो शक्ति केवल विनाश का कारण बन जाती है।”

वीरांश ने माता-पिता की चेतावनियों को अनसुना कर दिया। उसका मानना था कि शान और सम्मान केवल विजयों और शक्ति से आते हैं।

राज्य में हर साल वीरता प्रतियोगिता होती थी। वीरांश हर बार जीतता और जनता उसकी जय-जयकार करती। हर जीत उसे और अधिक अहंकारी बनाती, और उसका हृदय स्वार्थ और झूठी शान में डूबता चला गया।

एक दिन राज्य में एक बुजुर्ग ज्ञानी आया। उसने वीरांश को चेतावनी दी, “यदि तुम अपनी शक्ति और शान को केवल स्वार्थ और अहंकार में बदलोगे, तो यह तुम्हारे और राज्य के लिए विनाश का कारण बनेगा।”

वीरांश हँसकर बोला, “भविष्य केवल मेरी इच्छाओं से बनता है, किसी चेतावनी या परामर्श से नहीं।”

कुछ वर्षों बाद राजा धरणीवर्धन वृद्ध हो गए। उन्होंने राज्य का कार्य अपने पुत्र को सौंप दिया। वीरांश ने तुरंत अपने शासन में शक्ति और विजय के लिए तैयारी शुरू की। उसने सेना को दोगुना किया, धन का संग्रह किया, और घोषणा की कि केवल शक्ति और शान ही सत्य है।

राज्य में धीरे-धीरे भय और अनिश्चितता फैलने लगी। मंत्री डर के मारे चुप हो गए, और जनता अपनी आवाज दबाने लगी। वीरांश ने घोषणा की कि वह अपने राज्य का विस्तार करेगा। पहला लक्ष्य था सिंहपुर

मंत्रियों ने कहा, “सिंहपुर हमारा मित्र राज्य है। शांति बनाए रखना अधिक मूल्यवान है।”
वीरांश ने कहा, “दुनिया केवल महान और शक्तिशाली को याद रखती है। रुका तो मिट गया।”

युद्ध भयंकर हुआ। सिंहपुर पर विजय प्राप्त हुई, लेकिन जनता में उत्साह नहीं, डर और असंतोष फैला। वीरांश को अहसास हुआ कि शक्ति केवल विजय से नहीं मिलती, बल्कि कर्तव्य और न्याय से मिलती है।

अगला लक्ष्य था कृपाश्री, जो एक समृद्ध और शांतिप्रिय राज्य था। मंत्रियों ने आगाह किया, “युद्ध केवल रक्षा के लिए होना चाहिए, विस्तार और अहंकार के लिए नहीं।”
वीरांश ने उनका विरोध दबा दिया और अपने सेनापति को पद से हटा दिया।

कृपाश्री के लोग युद्ध से नहीं, बल्कि बुद्धि, धैर्य और एकता से लड़े। उन्होंने पर्वतीय मार्ग बंद कर दिए, जल स्रोत छिपा लिए और युद्ध को लंबा खींच दिया। कई महीनों के संघर्ष के बाद वीरांश की सेना थक गई, हथियार टूटने लगे और भोजन समाप्त हो गया। सैनिकों ने हार नहीं मानी, पर उनका मन विश्वासहीन होता जा रहा था।

वीरांश अपने अहंकार और झूठी शान के बोझ तले टूट गया। वह समझ गया कि वह इतिहास में महान बनने के लिए नहीं, बल्कि कठोर और निर्दयी छाया बनने की दिशा में बढ़ रहा था।

अंततः उसने घोषणा की कि अब राज्य विस्तार की नीति समाप्त होगी। अब केवल विकास, सुरक्षा और न्याय की दिशा में काम किया जाएगा। जनता ने राहत की सांस ली। लेकिन उसके सेनापति ने कहा, “महाराज, आपने सही राह चुनी है, पर राज्य को पहले जैसी शक्ति और सम्मान तक पहुँचाने में समय लगेगा।”

वीरांश ने कहा, “मैंने सीखा है कि शान और शक्ति तब सही होती है, जब उसके साथ संयम, विवेक, दया और अनुभव जुड़ा हो। यदि यह अभाव हो, तो मनुष्य केवल स्वयं को और दूसरों को हानि पहुँचाता है।”

उन्होंने राज्य के घायल सैनिकों और उनके परिवारों की सहायता की, पड़ोसी राज्यों के साथ शांति और व्यापार समझौते किए, और शिक्षा, चिकित्सा एवं सुरक्षा योजनाओं को बढ़ावा दिया। धीरे-धीरे राज्य फिर से समृद्ध और सुरक्षित हो गया, और वीरांश का नाम एक अनुभवी, संयमी और न्यायप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

इतना कहकर बेताल चुप हुआ और धीमे से पूछा, “राजा, इस कहानी में असली दोषी कौन था? वीरांश की झूठी शान, उसके मंत्रियों की चुप्पी, या जनता की अनदेखी?”

विक्रम ने गंभीरता से कहा, “दोष केवल वीरांश का नहीं था। सबसे बड़ा दोष था संयम और विवेक की कमी। झूठी शान और स्वार्थ ने मार्ग भटकाया। मंत्री अपनी चुप्पी से दोषी बने, जनता का दोष सबसे कम था। यदि संयम और न्याय समय रहते जुड़ते, तो विनाश टल जाता।”

बेताल हँसकर हवा में गायब हो गया, और विक्रम फिर उसी रास्ते पर बढ़ चले, जहाँ उनका अधूरा कर्तव्य और न्याय उनका इंतजार कर रहा था।

शिक्षा: झूठी शान और स्वार्थ तब विनाशकारी होती हैं, जब उनके साथ संयम, विवेक और दया नहीं जुड़ी होती।

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