विक्रम और बेताल: द्वारपाल का दण्ड
रात बहुत अंधेरी थी और तेज़ बारिश लगातार हो रही थी। घने बादलों की गड़गड़ाहट, सियारों की करुण चीखें और हवा की तीखी सनसनाहट वातावरण को और भी भयावह बना रही थीं। लेकिन राजा विक्रमादित्य इन सबके बीच निर्भय होकर प्राचीन वृक्ष पर चढ़े, शव को उतारा और कंधे पर रखकर श्मशान भूमि की ओर चल पड़े। उनका मौन और दृढ़ संकल्प इस बात का प्रमाण था कि वे किसी प्रतिज्ञा के निर्वहन में थे।
कुछ कदम चलते ही बेताल शव से बोल उठा, “राजन, तुम पर दया आती है। तुम बिना विश्राम किए मेरे पीछे आते रहते हो। अपने महल के सुखद बिस्तर का त्याग कर तुम इस अँधेरी, डरावनी रात में भटक रहे हो। लगता है कोई वचन तुम्हें बाँधे हुए है। यदि तुम मेरी कहानी सुनोगे, तो शायद तुम्हें अपने इस प्रयास की व्यर्थता का एहसास होगा।”
विक्रम चुप रहे, क्योंकि वे जानते थे कि एक शब्द भी मुख से निकलते ही बेताल फिर वृक्ष पर लौट जाएगा।
बेताल ने कथा शुरू की—
बहुत समय पहले चन्द्रकांत नाम का एक न्यायप्रिय, साहसी और दयालु राजा था। उसके शासन में प्रजा सुखी, निडर और सुरक्षित थी। राज्य में शांति व्याप्त थी और कोई भी चिंता का विषय नहीं था। राजा स्वयं सबका ध्यान रखता था और अनुशासन को सर्वोपरि मानता था।
एक दिन उसके राज्य का एक द्वारपाल राजा के पास घबराया हुआ आया और बोला, “महाराज, सैनिकों को सावधान कर दीजिए। संभव है कि शत्रु कुछ ही दिनों में हमारे राज्य पर आक्रमण करे।”
राजा चन्द्रकांत चकित रह गए। उन्होंने पूछा कि यह बात उसे कैसे पता चली, पर द्वारपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप वहीं खड़ा रहा।
दिन बीतते गए। अचानक एक सुबह पड़ोसी राज्य ने भारी सेना के साथ चन्द्रकांत के राज्य पर आक्रमण कर दिया। परंतु चूँकि सैनिक पहले से ही चौकन्ने थे, उन्होंने पूरी शक्ति से युद्ध किया और शत्रु सेना को परास्त कर दिया। विजय के बाद राजा को तुरंत द्वारपाल का पूर्व संकेत याद आया और वे उसकी दूरदर्शिता से प्रभावित हुए।
उस रात महल लौटकर जब राजा विश्राम कर रहे थे, उन्होंने निश्चय किया कि अगले दिन वे द्वारपाल को उसके परामर्श के लिए उचित पुरस्कार देंगे।
सुबह होते ही उन्होंने उसे दरबार में बुलाया। द्वारपाल प्रसन्न होकर आया, क्योंकि वह अपने साहस और चेतावनी के लिए पुरस्कृत होने की आशा कर रहा था। राजा ने उसे हजार स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं और पूछा, “तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि शत्रु राज्य हम पर आक्रमण करेगा?”
द्वारपाल ने विनम्रता से उत्तर दिया, “महाराज, मुझे कभी-कभी भविष्य की घटनाएँ सपनों में दिखाई देती हैं। उस रात ड्यूटी के समय मुझे स्वप्न आया कि शत्रु हम पर हमला करेगा। इसलिए मैंने आपको आगाह कर दिया।”
राजा उसकी क्षमता और सत्यनिष्ठा से प्रसन्न हुए। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “तुम्हारा कार्य सराहनीय है।”
लेकिन अचानक उन्होंने कठोर स्वर में आदेश दिया, “परंतु अब तुम अपने पद से मुक्त किए जाते हो।”
यह सुनते ही पूरा दरबार स्तब्ध रह गया। किसी की समझ में नहीं आया कि राजा एक ओर उसे पुरस्कृत कर रहे हैं और दूसरी ओर उसे दण्डित भी।
परंतु द्वारपाल बिना किसी तर्क या विरोध के बोला, “महाराज, यह दण्ड उचित है।”
यह कहकर वह शांत भाव से वहाँ से चला गया।
कहानी समाप्त कर बेताल बोला, “राजन! बताओ, राजा चन्द्रकांत ने द्वारपाल को क्यों दण्ड दिया, जबकि उसी की चेतावनी के कारण युद्ध में विजय मिली? यदि उत्तर जानते हो तो कहो, अन्यथा तुम्हारा मस्तक भस्म कर दूँगा।”
राजा विक्रमादित्य ने बिना देर लगाए उत्तर दिया—
“बेताल, राजा का दण्ड पूर्णतः न्यायसंगत था। द्वारपाल का मुख्य कर्तव्य था महल के द्वार की रक्षा करना। यदि उसने स्वयं कहा कि उसे यह सपना सेवा के समय आया, तो इसका अर्थ है कि वह अपने पहरे के दौरान सो गया था। महल का द्वार देश की सुरक्षा का प्रथम आधार होता है। यदि द्वारपाल ही सो जाए तो पूरा राज्य जोखिम में पड़ सकता है।
इसलिए राजा ने उसके बुद्धिमान सुझाव और समय पर चेतावनी के लिए उसे पुरस्कृत किया, लेकिन कर्तव्यच्युत होने के कारण उसे पद से हटाना आवश्यक समझा। पुरस्कार उसके परामर्श के लिए और दण्ड उसकी लापरवाही के लिए था।”
विक्रम का उत्तर समाप्त होते ही बेताल ज़ोर से हँसा और पलभर में फिर उसी प्राचीन वृक्ष पर जा लटक गया।
विक्रमादित्य भी अपने वचन के प्रति दृढ़ रहते हुए तलवार उठाकर एक बार फिर उसके पीछे चल पड़े।