विक्रम-और-बेताल-Vikram-and-Betal

विक्रम और बेताल: वचन की ताकत भाग बाईस

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: वचन की ताकत

घना जंगल अंधेरे में डूबा हुआ था। पेड़ों की परछाइयाँ हिलती हुई प्रतीत होती थीं और हवा में एक अनजाना भय तैर रहा था। राजा विक्रम अपने मजबूत कदमों के साथ श्मशान की ओर बढ़ रहे थे, जहाँ बेताल फिर से उसी पेड़ से उलटा लटका हुआ था। जैसे ही विक्रम ने उसे अपने कंधे पर डाला, बेताल हँसा और बोला, “राजन, इस बार की कहानी वचन, त्याग और सच्चाई की ताकत पर आधारित है। यदि आप मेरे प्रश्न का उत्तर देंगे, तो मैं फिर उड़ जाऊँगा। लेकिन यदि नहीं जानते, और मौन रहते हैं, तो मैं आपके कंधे पर बना रहूँगा।”

विक्रम शांत रहे। बेताल ने कहानी आरंभ की।

बहुत समय पहले, नर्मदा नदी के किनारे बसे एक प्राचीन नगर में ऋषि वसिष्ठ नामक एक तेजस्वी साधु रहते थे। उनके आश्रम में कई शिष्य शिक्षा ग्रहण करते थे, पर उनमें से एक युवक विशेष था—नाम था सोमदत्त। वह गंभीर, सीधा और हर बात में सत्यनिष्ठ। आश्रम के नियम उसके लिए धर्म की तरह थे। ऋषि वसिष्ठ उसे विशेष प्रेम करते थे, क्योंकि सोमदत्त न केवल ज्ञान में आगे था, बल्कि उसके हृदय में करुणा और धर्म का पालन भी गहराई से जुड़ा था।

एक दिन, राजमहल से संदेश आया कि राजा अपनी एक गंभीर समस्या के समाधान के लिए ऋषि वसिष्ठ से सहायता चाहते हैं। राजा को अपनी पुत्री के लिए ऐसा योग्य वर चुनना था, जो केवल युद्ध कौशल या धन में नहीं, बल्कि चरित्र और वचनबद्धता में श्रेष्ठ हो। ऋषि वसिष्ठ के मन में तुरंत सोमदत्त का ध्यान आया। उन्होंने उसे साथ लेकर राजमहल का मार्ग पकड़ा।

राजा ने सोमदत्त का विनम्र व्यवहार, उसकी शालीनता और ज्ञान देखकर प्रसन्न होकर पूछा, “युवक, यदि मेरी पुत्री तुम्हें वरण करे, तो क्या तुम उसे सुख और सम्मान दोगे?”

सोमदत्त ने सिर झुकाकर कहा, “राजन, मेरा वचन है कि मैं धर्म के मार्ग पर चलकर आपकी पुत्री का सदैव सम्मान करूँगा। भले ही भाग्य मुझे किसी कठिन समय में डाल दे, मेरा वचन कभी नहीं टूटेगा।”

राजा संतुष्ट हो गए। विवाह का निश्चित होना था, पर तभी महल में एक विपत्ति की खबर पहुँची। पड़ोसी राज्य का नृशंस राजा आक्रमण की तैयारी कर रहा था। अगर विवाह की घोषणा होती, तो शत्रु के संदेह बढ़ जाते और युद्ध शीघ्र शुरू हो जाता। इसलिए राजा ने विवाह को कुछ दिनों के लिए स्थगित करने का निर्णय लिया। सोमदत्त ने भी राजा के निर्णय का सम्मान किया, क्योंकि वह देशहित को सर्वोपरि मानता था।

लेकिन उसी रात एक विचित्र घटना घटी। महल के मुख्य द्वार पर एक घायल वृद्ध प्रकट हुआ। उसका वस्त्र फटा हुआ था और आँखों में भय था। उसने स्वयं को पास के गाँव चंदनपुर का निवासी बताया। उसका गाँव डकैतों से परेशान था और वही लोग उसका पीछा करते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे। वृद्ध ने रोते हुए कहा, “बेटा, यदि किसी ने हमारी सहायता न की, तो पूरा गाँव उजड़ जाएगा।”

सोमदत्त का हृदय पिघल गया। उसने तुरंत वृद्ध को सहारा दिया और राजा से अनुमति माँगी कि वह चंदनपुर जाकर लोगों की रक्षा करे। राजा ने कहा, “युवक, युद्ध का समय निकट है, तुम राज्य के महत्वपूर्ण व्यक्ति हो। तुम्हारा जाना उचित नहीं।”

पर सोमदत्त ने कहा, “राजन, जब मैंने किसी की रक्षा करने का वचन लिया है, तो मैं पीछे नहीं हट सकता। मेरा जीवन वचन और धर्म पर आधारित है।”

राजा ने भारी मन से अनुमति दी।

सोमदत्त अकेला चंदनपुर जाने के लिए निकल पड़ा। रास्ता कठिन था। जंगल में जंगली जानवरों का खतरा था, पर वह अपने वचन की रक्षा के लिए बढ़ता गया। गाँव पहुँचते ही उसने देखा कि डकैतों का गिरोह बाजुओं में तलवारें लिए गाँव वालों को धमका रहा है। सोमदत्त ने बिना किसी हथियार के उनके सामने जाकर कहा, “गाँव पर आक्रमण करना वीरता नहीं, कायरता है। यदि तुम्हें किसी से युद्ध करना है, तो मुझसे करो।”

डकैतों के सरदार ने हँसते हुए कहा, “अकेले तुम? तुम्हारी हिम्मत?”

सोमदत्त ने साहस से उत्तर दिया, “मेरे पास हथियार नहीं, पर मेरा वचन और धर्म मेरा सबसे बड़ा अस्त्र है।”

सोमदत्त ने बड़ी सूझबूझ से गाँव वालों को एकजुट किया। उसने उन्हें बिना डर के खड़े होने की प्रेरणा दी। उसकी नेतृत्व क्षमता देखकर डकैत घबरा गए और कुछ ही समय में गाँव वालों ने मिलकर उन्हें खदेड़ दिया। चंदनपुर फिर से सुरक्षित हो गया। लोग सोमदत्त के साहस और वचनबद्धता से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे सम्मानित किया, पर सोमदत्त विनम्रता से बोला, “मैंने केवल अपना वचन निभाया है।”

उधर महल में राजा और उनकी पुत्री दोनों उसकी चिंता में डूबे थे। विवाह की तिथि बिल्कुल पास थी, पर सोमदत्त का कोई समाचार नहीं था। कई दिनों बाद जब सोमदत्त वापस लौटा, तो वह थका हुआ था, पर उसकी आँखों में संतोष चमक रहा था। उसने राजा को संपूर्ण घटना बताई। राजा ने उसकी वचनबद्धता देखकर कहा, “सोमदत्त, ऐसा व्यक्ति ही मेरी पुत्री के योग्य है। जिसने वचन के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा दिया, वह इस राज्य का गौरव है।”

विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ। परन्तु बेताल ने कथा यहीं समाप्त नहीं की। उसने विक्रम से पूछा, “राजन, बताओ, सोमदत्त ने क्या सही किया? उसे वचन निभाने के लिए जाना चाहिए था या राज्य और विवाह के महत्व को समझकर रुकना चाहिए था? किसका धर्म अधिक श्रेष्ठ था?”

राजा विक्रम ने तुरंत उत्तर दिया, “बेताल, धर्म हमेशा उसी का होता है, जो निस्वार्थ भाव से किसी की रक्षा करे। राज्य और विवाह बाद में आते हैं। सोमदत्त ने अपने वचन, साहस और कर्तव्य को सर्वोपरि रखा। यही असली धर्म है।”

जैसे ही यह उत्तर पूरा हुआ, बेताल फिर हँसते हुए हवा में गायब हो गया।

कहानी समाप्त।

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