विक्रम-और-बेताल-Vikram-and-Betal

विक्रम और बेताल: क्षमा की महानता भाग अठारह

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: क्षमा की महानता 

रात का अंधेरा गहरा था। श्मशान भूमि में हल्की धुंध घिरी हुई थी, और हवा की सरसराहट में सूखे पत्तों की भँभोर जैसी आवाज गूँज रही थी। पेड़ों की टहनियाँ आपस में टकरा रही थीं, मानो किसी अदृश्य शक्ति के साथ संघर्ष कर रही हों। उस अंधकार और रहस्यमय माहौल में राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर बेताल को मजबूती से पकड़कर आगे बढ़ रहे थे। उनके कदमों की आवाज मिट्टी में दबती जा रही थी, पर हृदय में कर्तव्य, न्याय और धैर्य की आग पहले से अधिक प्रज्वलित थी।

बेताल ने धीमे और गंभीर स्वर में कहा, “राजा, तुम्हारी वीरता और धैर्य हर बार मुझे आश्चर्यचकित करता है। पर आज की कहानी में केवल वीरता ही काम नहीं आएगी। यह कहानी है क्षमा, मानवीयता और परिपक्वता की। इसे सुनो और उत्तर सोच-समझ कर दो।”

विक्रम ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “मैं सुनने के लिए तैयार हूँ। सत्य, न्याय और क्षमा का मार्ग ही जीवन का वास्तविक मूल्य तय करता है।”

बहुत समय पहले, सत्यपुर नामक राज्य था। वहां का राजा था अद्वैतचंद्र, जो अपने समय का न्यायप्रिय और परिपक्व शासक माना जाता था। परंतु उसके पुत्र, युवराज रुद्रांश, बचपन से ही तेज, महत्वाकांक्षी और घमंडी था। उसका हृदय शक्ति और प्रभुत्व की लालसा में डूबा था।

रुद्रांश हमेशा कहता, “मैं केवल राजा नहीं बनूंगा, मैं ऐसा नाम और शक्ति प्राप्त करूँगा, कि लोग मेरे सामने झुकें और मेरी ताकत का सम्मान करें।”

राजा अद्वैतचंद्र अपने पुत्र को प्यार करते थे, लेकिन उसकी सोच पर चिंता करते थे। उन्होंने कहा, “सत्ता और शक्ति सुंदर होती है जब उसके साथ दयालुता, संयम और क्षमा जुड़ी हो। अहंकार और क्रोध केवल विनाश की ओर ले जाते हैं।”

रुद्रांश ने पिता की चेतावनियों को अनसुना कर दिया। उसकी सोच में केवल स्वार्थ और शक्ति थी।

राज्य में हर वर्ष युद्ध और वीरता की प्रतियोगिता आयोजित होती थी। रुद्रांश हर बार जीतता और उसकी जीत से उसका अहंकार और भी बढ़ता। उसके मंत्रियों और विद्वानों ने बार-बार उसे चेताया कि संयम और मानवता अधिक मूल्यवान हैं, लेकिन वह उन्हें अनसुना कर देता।

एक दिन राज्य में एक वृद्ध साधु आया। उसने रुद्रांश को चेतावनी दी, “यदि तुम अपनी शक्ति का उपयोग केवल अहंकार और स्वार्थ के लिए करोगे, तो यह तुम्हारे और राज्य के लिए विनाशकारी होगा। याद रखो, क्षमा ही वास्तविक शक्ति है।”

रुद्रांश ने हँसकर कहा, “क्षमा? मैं शक्तिशाली हूँ, मुझे किसी से डर या क्षमा की जरूरत नहीं।”

कुछ वर्षों में राजा अद्वैतचंद्र वृद्ध हो गए और राज्य का जिम्मा अपने पुत्र को सौंप दिया। रुद्रांश ने सत्ता संभालते ही अपने प्रभुत्व और शक्तिशाली छवि को स्थापित किया। उसने पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त की, और अपनी शक्ति का प्रदर्शन हर अवसर पर किया।

एक दिन, राज्य में एक छोटा सा गांव रहा जिसने रुद्रांश की सेना को चुनौती दी। उनके निवासी कमजोर और असहाय थे, पर उन्होंने अपनी सत्य और न्याय की ताकत दिखाई। रुद्रांश क्रोधित हुआ और आदेश दिया कि गांव को दंडित किया जाए।

परंतु उस समय उसके दरबार में एक वृद्ध मंत्री खड़ा हुआ। उसने कहा, “महाराज, शक्ति केवल विजय और दंड देने में नहीं, बल्कि क्षमा और समझ में है। यदि आप इन्हें दंडित करेंगे, तो इतिहास में आपकी छवि केवल क्रूर और निर्दयी की होगी।”

रुद्रांश गुस्से में मंत्री को डांटने ही वाला था कि अचानक उसने देखा कि उसके सैनिक थक चुके हैं और जनता में डर फैल गया है। उसे अपने पिता की चेतावनी याद आई: “क्षमा ही वास्तविक शक्ति है।”

वह गहरी सोच में पड़ गया। उसने आदेश वापस लिया और गांव के लोगों को माफ कर दिया। यह निर्णय उसके लिए कठिन था, पर उसने महसूस किया कि सच्ची वीरता केवल शौर्य से नहीं, बल्कि क्षमा और विवेक से आती है।

कुछ वर्षों बाद रुद्रांश ने कई युद्धों और संघर्षों के बाद महसूस किया कि केवल शक्ति और विजय से सम्मान नहीं मिलता। असली सम्मान और स्थायी लोकप्रियता दयालुता, न्याय और क्षमा से मिलती है। उसने अपने राज्य में शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक योजनाएँ शुरू की। कमजोरों और अपराधियों को सुधारने का मार्ग अपनाया, न कि केवल दंड। धीरे-धीरे राज्य में शांति और समृद्धि लौट आई, और रुद्रांश की छवि एक न्यायप्रिय, अनुभवी और क्षमाशील शासक के रूप में प्रसिद्ध हुई।

इतना कहकर बेताल चुप हुआ और धीमे से कहा, “राजा, अब बताओ, इस कहानी में असली महानता किसमें थी? शक्ति में, विजय में या क्षमा में?”

विक्रम ने गंभीरता से कहा, “महानता केवल शक्ति या विजय में नहीं है। असली महानता संयम, क्षमा और न्याय में निहित है। रुद्रांश ने जो समझा और स्वीकार किया, वही उसे इतिहास में यादगार बनाता है। शक्ति बिना क्षमा और विवेक के केवल विनाश की ओर ले जाती है।”

बेताल हँसते हुए हवा में गायब हो गया, और विक्रम फिर उसी रास्ते पर बढ़ चले जहाँ उनका अधूरा कर्तव्य और न्याय उनका इंतजार कर रहा था।

शिक्षा: वास्तविक शक्ति और महानता क्षमा, विवेक और संयम में है; स्वार्थ और क्रोध केवल विनाश लाते हैं।

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