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विक्रम और बेताल: एक अधूरी प्रतिज्ञा और प्राणों की बाज़ी पर टिका सत्य भाग पाँच

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: एक अधूरी प्रतिज्ञा और प्राणों की बाज़ी पर टिका सत्य

रात अत्यंत भयावह थी। कभी हल्की, कभी तेज़ वर्षा रुक-रुक कर हो रही थी। तेज़ हवाएँ पेड़ों को झकझोर रही थीं। वातावरण में अजीब सी घुटन और अनजान आवाज़ें गूंज रही थीं। बिजली की चमक के साथ आसपास की परछाइयाँ विकराल चेहरों जैसी प्रतीत हो रही थीं। कहीं दूर सियारों की करुण हूक और बीच-बीच में रहस्यमयी हँसी हवा में तैरती हुई सुनाई दे रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उस श्मशान भूमि में असंख्य अदृश्य आत्माएँ विचरण कर रही हों।

लेकिन इन सब विचित्र दृश्यों और भयावह वातावरण के बावजूद राजा विक्रमादित्य के साहस में तनिक भी विचलन नहीं था। अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के लिए वह बार-बार उसी पुराने पेड़ पर चढ़ते, उस उलटी लटकी देह को अपने कंधों पर उठाते और श्मशान से बाहर निकलने लगते। इस बार भी वह उसी थके हुए पर दृढ़ कदमों से चल पड़े थे कि तभी उस शव में बसा बेताल बोल पड़ा—

“अरे राजा, तुम्हें अपने ऊपर दया नहीं आती? तुम बिना थके, बिना रुके, बरसात और अंधकार से जूझते हुए मुझे फिर उठा ले जा रहे हो। लगता है तुमने किसी को कोई प्रतिज्ञा की है जिसे निभाने के लिए तुम इतने अधीर हो। किंतु यदि तुम चाहो तो मेरी एक कथा सुन लो। शायद उसे सुनकर समझ पाओ कि प्रतिज्ञाएँ निभाना उतना सरल नहीं, जितना तुम समझते हो।”

इतना कहकर बेताल ने अपनी कथा आरंभ की।

किशनगढ़ राज्य का राजा राजेन्द्र अत्यंत पराक्रमी, न्यायप्रिय और लोकहितैषी था। उसकी प्रजा समृद्ध और संतुष्ट रहती थी क्योंकि राजा अपने कर्तव्यों में कभी चूक नहीं करता था। उसकी पत्नी रानी प्रेमा ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया जिसका नाम सोना रखा गया। चूँकि वह राजा की इकलौती संतान थी, इसलिए उसे अपार स्नेह और स्वतंत्रता के साथ पाला गया।

सोना का स्वभाव दृढ़ था। वह न केवल विद्वान थी बल्कि युद्ध-कला, धनुर्विद्या, शस्त्र-विद्या और आत्मरक्षा में भी दक्ष हो गई थी। उसे राजकुमारों की तरह शिक्षा दी गई थी, इसलिए उसमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था। समय बीतने पर जब वह विवाह योग्य हुई, तो राजा और रानी उसके लिए योग्य वर की खोज में लग गए। परंतु सोना के मन में विवाह के विषय में अपने विचार थे। उसने माता-पिता से स्पष्ट कहा—

“मेरे पिताश्री, मैं तभी विवाह करूँगी जब कोई योद्धा मुझे युद्ध-कला में परास्त करे। यदि भविष्य में राज्य पर संकट आए, तो मेरा पति मेरा साथ दे सके और युद्धभूमि में शत्रु पर विजय प्राप्त कर सके। यदि आप मेरी यह शर्त स्वीकार करें तभी विवाह की घोषणा की जाए।”

राजा और रानी अपनी पुत्री के साहस और विचारों से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पूरे राज्य और आसपास के राज्यों में इसकी घोषणा करवा दी।

सोना की सुंदरता और उसकी वीरता के किस्से दूर-दूर तक फैल गए थे। कई राजकुमार यह सोचकर उसके महल पहुँचे कि एक लड़की को हराना कठिन नहीं होगा। साथ ही वे जानते थे कि उससे विवाह का अर्थ था पूरे राज्य पर अधिकार। परंतु जब वे सोना के सामने युद्धभूमि में उतरे, तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। सोना अपने हर प्रतिद्वंदी को एक-एक कर परास्त करती गई। कोई भी राजकुमार उसके सामने टिक नहीं पाया।

इन्हीं दर्शकों में एक दिन चंदनगढ़ के युवराज उदयवर्मा भी उपस्थित थे। वे हर दिन इस प्रतियोगिता को देखते और चुपचाप सोना की हर चाल, हर प्रहार, हर रणनीति को सीखते जाते। वह गहनता से समझ रहे थे कि सोना किस प्रकार विरोधियों की युद्ध शैली के अनुसार अपनी रणनीति बदल लेती है। एक दिन जब सोना ने तलवार से एक अत्यंत सूक्ष्म और कठिन वार किया, तो उदयवर्मा उत्साह में खड़े हो गए और प्रशंसा में जोर से बोले—

“वाह! अद्भुत!”

सोना ने आश्चर्य से भीड़ की ओर देखा कि कौन ऐसा है जो युद्ध-कला की इतनी गहराई को समझ सकता है। पर भीड़ इतनी बड़ी थी कि वह उसे स्पष्ट न देख सकी।

अब उदयवर्मा सोना की सारी शैली सीख चुके थे। अगले दिन वे स्वयं प्रतियोगिता के लिए आगे आए। युद्ध आरंभ हुआ। दोनों में अत्यंत तीव्र, कौशलपूर्ण और बराबरी का संघर्ष हुआ। सोना ने अपनी सारी चालें चलीं परंतु उदयवर्मा हर बार उसके समान कौशल से उसका सामना करते रहे। अंततः लंबे संघर्ष के बाद सोना को हार स्वीकार करनी पड़ी।

दर्शकों में उल्लास छा गया। उदयवर्मा राजा-रानी के समक्ष प्रस्तुत हुए। सोना ने उन्हें पहचान लिया और उनसे पूछा—

“क्या आपने उस दिन मुझे प्रोत्साहन दिया था?”

उदयवर्मा ने स्वीकार किया। यह सुनते ही सोना ने कारण समझ लिया कि वह उसे कैसे परास्त कर सके।

सोना ने राजा-रानी से कहा—

“मेरी शर्त थी कि जो मुझे युद्ध में हराएगा, मैं उससे विवाह करूँगी। परंतु मैं उदयवर्मा से विवाह नहीं कर सकती। इसका कारण वे स्वयं जानते हैं।”

उदयवर्मा ने कुछ देर विचार किया और कहा—

“हाँ राजकुमारी, आप सही कहती हैं। मैं आपसे विवाह का अधिकारी नहीं हूँ।”

और वह सिर झुकाकर महल से बाहर चले गए।

राजा और रानी अत्यंत आश्चर्यचकित थे। शर्त के अनुसार उदयवर्मा विजयी थे, फिर भी सोना ने विवाह से इनकार कर दिया और उदयवर्मा ने भी बिना प्रतिवाद के उसका निर्णय स्वीकार कर लिया।

कथा समाप्त कर बेताल ने विक्रम से प्रश्न किया—

“क्या यह सब सोना के अहंकार के कारण हुआ? क्या वह घमंडी थी? क्या उसने अपनी बात से मुकरकर अहंकार दिखाया? यदि जानते हो तो उत्तर दो, वरना तुम्हारा मस्तक फट जाएगा!”

राजा विक्रम ने तुरंत कहा—

“सोना घमंडी नहीं थी। उदयवर्मा ने उससे सीख लेकर उसे हराया था। युद्धभूमि में वह पहले उसके शिष्य बने, और गुरु-शिष्य का संबंध अत्यंत पवित्र होता है। गुरु को माता-पिता के समान माना जाता है और गुरु से विवाह करना उचित नहीं। सोना ने अपने संबंध की पवित्रता को समझा। उदयवर्मा ने भी समझा कि वह जिनसे सीखा है, उनसे विवाह करना धर्म के विपरीत होगा। इसलिए उन्होंने भी उसका निर्णय स्वीकार किया।”

यह उत्तर सुनते ही बेताल फिर विक्रम के कंधे से उड़कर पुराने वृक्ष पर जा बैठा। और विक्रमादित्य पुनः तलवार सँभालकर उसकी ओर बढ़ चले।

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