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विक्रम और बेताल: संपत्ति का सही वारिस भाग तेईस

विक्रम और बेताल की कहानियाँ

विक्रम और बेताल: संपत्ति का सही वारिस

घोर अंधेरा फैला हुआ था। रात की निस्तब्धता को केवल झींगुरों की आवाजें ही तोड़ रही थीं। राजा विक्रम अपनी दृढ़ चाल के साथ जंगल से होते हुए फिर उसी श्मशान की ओर बढ़ रहे थे। हवा भारी थी, पर उनका संकल्प इससे भी अधिक दृढ़। बेताल हमेशा की तरह उसी पेड़ पर उलटा लटका इंतजार कर रहा था। विक्रम ने जैसे ही उसे कंधे पर उठाया, बेताल ने हँसते हुए कहा, “राजन, चूंकि आप मुझे बिना बोले ले जाना चाहते हैं, तो मैं आपको एक और कहानी सुनाता हूँ। यदि अंत में मेरे प्रश्न का उत्तर दे दिया, तो मैं फिर उड़ जाऊँगा।”

राजा विक्रम मौन रहे। बेताल ने कथा शुरू की।

बहुत समय पहले, एक समृद्ध नगर में एक दानी व्यापारी रहता था। लोग उसे महादेव सेठ के नाम से जानते थे। उसकी संपत्ति दूर-दूर तक फैली थी। अनाज के कोठार, रत्नों के भंडार, सोना-चाँदी, खेत, बगीचे, सब कुछ उसकी मेहनत और ईमानदारी से अर्जित किया हुआ था। परंतु जीवन में एक कमी थी—उसका कोई संतान नहीं था।

महादेव सेठ और उनकी पत्नी रमा देवी दोनों धर्मपरायण थे। दोनों को एक ही चिंता सताती—उनकी अपार संपत्ति का सही वारिस कौन होगा। वे नहीं चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी मेहनत व्यर्थ जाए या गलत हाथों में पड़कर लोगों का शोषण हो।

कई वर्षों बाद, जब महादेव सेठ वृद्ध हो गए, तब एक दिन शहर में खबर फैली कि उनके दूर के रिश्तेदार हरिशंकर अपनी पत्नी और पुत्र के साथ सेठ के घर आए हैं। हरिशंकर ने स्वयं को सेठ का भतीजा बताया। सेठ ने उसे घर में ठहरने दिया, पर मन में एक संदेह भी था, क्योंकि वह वर्षों से उनसे कभी मिलने नहीं आया था।

हरिशंकर ने धीरे-धीरे सेठ के कामकाज में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया। वह सेठ के कर्मचारियों से बातें करता, हिसाब-किताब देखता और दिखावटी प्रेम जताता। कुछ दिन बाद उसने सेठ से कहा, “चाचा, मैं आपका सच्चा वारिस हूँ। आपके बाद यह घर, यह संपत्ति मुझे मिलनी चाहिए। आखिर खून का रिश्ता ही असली रिश्ता होता है।”

सेठ ने उसकी बात सुनी, पर जवाब नहीं दिया। वे किसी पर जल्दी भरोसा करने वालों में से नहीं थे।

समय बीतता गया। एक दिन सेठ यात्रा पर निकले तो जंगल के रास्ते उन्हें एक बालक रोता हुआ मिला। उसका शरीर गंदगी से सना था, कपड़े फटे हुए थे। सेठ ने पूछा, “बेटा, कौन हो तुम? कहाँ से आए हो?”

बालक ने रोते हुए बताया कि डकैतों ने उसके माता-पिता को मार दिया और वह किसी तरह बच निकलकर यहाँ तक पहुँच गया। उसका नाम माधव था।

सेठ के हृदय में करुणा उमड़ पड़ी। वे उसे अपने साथ घर ले आए। रमा देवी ने भी प्रेम से उसका पालन-पोषण शुरू कर दिया। बालक विनम्र था, समझदार था, और हर काम बड़े मन से सीखता था। उसके व्यवहार में सरलता और कृतज्ञता साफ झलकती थी।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। माधव बड़ा होने लगा और सेठ के व्यापार में उनकी मदद करने लगा। वह ईमानदार था, परिश्रमी था और सेठ की तरह दूसरों की मदद करने में आनंद पाता था।

दूसरी ओर, हरिशंकर के मन में ईर्ष्या बढ़ने लगी। वह सोचता, “यह अनाथ लड़का कहाँ से आ गया जो धीरे-धीरे सेठ का प्रिय बनता जा रहा है।” उसने सेठ पर दबाव डालना शुरू किया कि संपत्ति का वारिस वही होना चाहिए।

एक दिन उसने खुले शब्दों में कहा, “चाचा, यह लड़का कौन है? न जात, न खून का रिश्ता। आप इस पर इतना भरोसा क्यों करते हैं? असली वारिस तो मैं हूँ।”

सेठ ने शांति से उत्तर दिया, “हरिशंकर, खून का रिश्ता होने से कोई व्यक्ति योग्य नहीं हो जाता। योग्यता और चरित्र ही असली पहचान है।”

हरिशंकर तिलमिला उठा, पर चुप हो गया।

कई महीनों बाद सेठ बीमार पड़ गए। उनकी दशा गंभीर होने लगी। पूरा घर चिंतित था। उन्होंने अपने विश्वासपात्र लोगों को बुलाकर कहा, “मुझे अपने वारिस का निर्णय करना है। परंतु यह निर्णय खून, नाम या उम्र के आधार पर नहीं होगा। यह व्यक्ति की सच्चाई, मेहनत, और ईमानदारी पर आधारित होगा।”

सभी अफसरों और परिवारवालों को अगली सुबह बुलाया गया।

अगले दिन सुबह सेठ ने दोनों को—हरिशंकर और माधव— को सामने बुलाया और कहा, “मेरे पास तुम दोनों के लिए एक अंतिम परीक्षा है। जो इसमें सफल होगा, वही मेरी सम्पत्ति का वारिस बनेगा।”

सभी लोग चकित थे। सेठ ने अपने नौकर को एक भारी, कीमती लंबा बर्तन लाने को कहा। वह चांदी का था और बहुत पुराना, पीढ़ी दर पीढ़ी सेठ के परिवार की निशानी था।

उन्होंने कहा, “दोनों इस बर्तन को शहर के आर-पार स्थित शिव मंदिर तक ले जाकर वहां बिना किसी क्षति के मुझे वापस लाकर दें। यह इतना भारी है कि इसे अकेले ले जाना कठिन है। परंतु सावधानी, बुद्धि और निष्ठा की परीक्षा इसी से होगी।”

हरिशंकर ने उत्साह में तुरंत बर्तन उठा लिया। उसने सोचा कि बल ही सबसे बड़ा साधन है। लेकिन रास्ते में थकान, जल्दबाजी, और चिड़चिड़ापन उसकी चाल में हावी हो गए। एक मोड़ पर वह फिसल पड़ा और बर्तन जमीन से टकराकर डेंट पड़ गया।

उधर माधव ने बर्तन को उठाया नहीं। उसने रास्ते में मिलने वाले दो राहगीरों से मदद माँगी, पर साथ ही मेहनताना देने का वचन भी दिया। उसने बर्तन को सावधानी से कपड़ों से लपेटा, उसे तिरपाल में बाँधा, और मंदिर तक धीरे-धीरे पहुँचाया। वहां पूजा की और फिर वापस लौटने लगा। उसके मन में कोई लालच नहीं था, बस जिम्मेदारी की भावना थी।

जब दोनों महल पहुँचे, तो सारा दरबार उत्सुक था।
हरिशंकर का बर्तन क्षतिग्रस्त था।
माधव का बर्तन बिल्कुल सुरक्षित।

सेठ ने सब देख लिया। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “जिसने लालच और अधिकार समझकर इस परीक्षा को हल्के में लिया, वह संपत्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। और जिसने जिम्मेदारी, विनम्रता और सूझबूझ से काम किया, वही योग्य है।”

उन्होंने माधव को अपना वारिस घोषित किया।

हरिशंकर गुस्से में चिल्लाया, “यह अन्याय है। मैं आपका खून हूँ।”

सेठ ने दृढ़ आवाज में कहा, “खून का रिश्ता व्यक्ति को योग्य नहीं बनाता। गुण, कर्म और चरित्र ही व्यक्ति को उत्तराधिकारी बनाते हैं।”

माधव रो पड़ा, “सेठजी, मैं तो एक अनाथ हूँ। मुझे आपका वारिस बनने का कोई लालच नहीं।”

सेठ ने स्नेह से कहा, “बेटा, तुम्हारे गुण और तुम्हारी सच्चाई ने तुम्हें मेरा पुत्र बना दिया है।”

कहानी यहाँ समाप्त हुई।

अब बेताल ने राजा विक्रम से पूछा, “राजन, बताओ, क्या महादेव सेठ ने सही निर्णय लिया? क्या खून का रिश्ता अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, या चरित्र और योग्यता?”

राजा विक्रम ने उत्तर दिया, “बेताल, व्यक्ति का मूल्य उसके चरित्र और कर्म से तय होता है, न कि खून के रिश्ते से। सेठ का निर्णय न्यायपूर्ण था। जिसने संपत्ति को जिम्मेदारी समझा, वही असली वारिस था।”

उत्तर पूरा होते ही बेताल फिर हवा में उड़ गया।

कहानी समाप्त।

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