एक समय की बात है, किसी नगर में धवल नाम का एक धोबी रहता था। वह प्रतिदिन की भाँति कपड़े साफ करने के लिए तालाब की ओर गया। उसी समय उसकी दृष्टि एक अत्यंत सुंदरी युवती पर पड़ी, जो उसी तालाब पर स्नान करने आई थी। वह युवती एक अन्य धोबी की पुत्री थी। उसकी सौम्यता और रूप देखकर धवल का हृदय उसी क्षण उससे प्रभावित हो गया। वह इतना मोहित हुआ कि घर लौटते ही अपने माता-पिता से विनती करने लगा कि वे उस सुंदरी के माता-पिता से उसका विवाह प्रस्ताव रखें। धवल के माता-पिता ने उसका अनुरोध स्वीकार किया और उचित रीति से उस युवती के घर जाकर उसका हाथ माँगा। युवती का नाम मदनसुंदरी था और उसके माता-पिता ने धवल के चरित्र और उसके परिवार को देखकर प्रसन्नतापूर्वक विवाह के लिए सहमति दे दी। शुभ मुहूर्त में मदनसुंदरी का विवाह धवल से हुआ और वह उसके साथ अपने ससुराल आकर रहने लगी।
कुछ समय बाद त्यौहारों का मौसम आया। मदनसुंदरी का भाई धवल के घर पहुँचा ताकि वह अपनी बहन और जीजा को अपने घर चलने के लिए निमंत्रित कर सके। धवल ने ससुराल जाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तीनों साथ मिलकर मदनसुंदरी के मायके की ओर चल दिए। यात्रा के दौरान वे देवी दुर्गा के एक प्राचीन और शक्तिशाली मंदिर के निकट से गुज़रे। मदनसुंदरी का भाई इस अवसर पर देवी के दर्शन करना चाहता था, इसलिए वह उन्हें वहीं रोके रखने को कहकर स्वयं मंदिर की ओर चला गया।
मंदिर में प्रवेश करते ही उसके भीतर देवी-भक्ति की तीव्र भावना जाग उठी। उसका मन एक असाधारण बलिदान करने के विचार से भर गया। अतः उसकी भावनाएँ इतनी प्रबल हुईं कि उसने उसी क्षण देवी के चरणों में अपना सिर अर्पित कर दिया। समय बीतने पर जब वह लौटकर नहीं आया, तो मदनसुंदरी ने चिंतित होकर धवल को उसे देखने भेजा।
धवल जैसे ही मंदिर के भीतर पहुँचा, उसने अपने साले को निर्जीव अवस्था में देखा। उसके हृदय में शोक और अत्यधिक समर्पण की भावना उमड़ पड़ी। उसे भी लगा कि देवी को प्रसन्न करने के लिए उसे भी अपना प्राण-दान करना चाहिए। इसी भावावेश में उसने अपनी तलवार उठाई और देवी के सामने अपना सिर अर्पित कर दिया।
बाहर प्रतीक्षा कर रही मदनसुंदरी को जब लंबे समय तक दोनों में से कोई दिखाई न दिया, तो वह भी चिंता से भरकर मंदिर के भीतर गई। वहाँ पहुँची तो उसने अपने पति और भाई दोनों को भूमि पर निष्प्राण पड़े देखा। यह दृश्य देखकर उसका हृदय फट गया। वह भी अपने प्राणों का त्याग करना चाहती थी, परंतु मरने से पूर्व उसने देवी से प्रार्थना की कि अगले जन्म में भी उसे यही पति और यही भाई मिलें। उसकी भक्ति और अनुराग देखकर देवी दुर्गा उसके सामने प्रकट हुईं। देवी ने उसे रोका और कहा कि वह दोनों के सिर और शरीर को जोड़ दे, तब वे पुनर्जीवित हो जाएँगे।
मदनसुंदरी ने आँसुओं से भरी आँखों और काँपते हाथों से दोनों के सिर उनके शरीरों से जोड़ना आरंभ किया। लेकिन मानसिक व्याकुलता और जल्दबाज़ी में उसने गलती से अपने भाई का सिर अपने पति के शरीर पर और पति का सिर अपने भाई के शरीर पर लगा दिया। दोनों तुरंत जीवित तो हो गए, परंतु इस अद्भुत परिस्थिति को देखकर मदनसुंदरी स्तब्ध रह गई। उसे समझ नहीं आया कि इन दोनों में उसका वास्तविक पति कौन है।
इसी कथा को सुनाते-सुनाते बेताल विक्रम के सामने प्रश्न रखता है कि इन दोनों पुरुषों में से मदनसुंदरी का वास्तविक पति कौन माना जाएगा। राजा विक्रम कुछ क्षण विचार करता है और फिर उत्तर देता है कि जिस शरीर पर उसके पति का सिर है, वही उसका सच्चा पति है। मनुष्य की पहचान उसके सिर, अर्थात् उसकी बुद्धि और स्मृति से होती है। इसलिए वही व्यक्ति उसका पति है जिसके पास उसके पति का सिर है, भले ही उसका शरीर किसी और का क्यों न हो।
विक्रम जैसे ही उत्तर देता है, बेताल अचानक अदृश्य हो जाता है और पुनः उसी पेड़ पर जा लटकता है, जहाँ से उसे विक्रम उठाकर ला रहा था। कहानी का असली रहस्य यही था कि मनुष्य का स्वरूप शरीर से नहीं बल्कि उसके सिर, विचार और पहचान से निर्धारित होता है।