विक्रम और बेताल: इंसानियत की असली पहचान
अंधेरी रात का वह समय था जब श्मशान की आग बुझ चुकी थी और हवा में बस धुएँ की हल्की सी गंध तैर रही थी। राजा विक्रम अपनी तलवार संभाले हुए उसी पेड़ की ओर बढ़ रहे थे जहाँ बेताल उल्टा लटका रहता था। हर कहानी के साथ मिलने वाली कठिनाई और सोच-विचार की परीक्षा उन्हें अब अजीब-सी दृढ़ता देती थी। बेताल मुस्कराया, झटके से उड़कर आया और अपने हल्के-से भार के बावजूद विक्रम के कंधों पर ऐसे बैठ गया जैसे कोई पुराना साथी वापिस लौट आया हो।
बेताल बोला, “राजन, तुम फिर मुझे लेकर जा रहे हो, और मैं फिर तुम्हें एक कहानी सुनाऊँगा। लेकिन याद रहे, यदि बीच में तुमने उत्तर दे दिया तो मैं फिर पेड़ पर लौट जाऊँगा।”
विक्रम ने शांत स्वर में कहा, “कहानी सुनाओ बेताल। जब तक साँस चलेगी, मैं तुम्हें लेकर जाऊँगा।”
बेताल ने कहानी शुरू की—
बहुत समय पहले एक नगर था, जिसका नाम माधवपुर था। नगर खुशहाल था और लोग आपस में प्रेम से रहते थे। उसी नगर में एक युवक रहता था, जिसका नाम देवांश था। देवांश पढ़ा-लिखा, परिश्रमी और शांत स्वभाव का था। उसकी एक विशेषता थी—वह हर किसी की मदद करने को तैयार रहता था, चाहे वह अमीर हो या गरीब, परिचित हो या बिल्कुल अनजान। देवांश मानता था कि इंसानियत का असली अर्थ दूसरों के दुख को समझकर उन्हें राहत देना है।
माधवपुर के किनारे एक बस्ती थी जहाँ कुछ मजदूर परिवार रहते थे। दिन-भर कड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती थी। लेकिन देवांश हमेशा उनकी सहायता करता—कभी उनके बच्चों की पढ़ाई में, कभी दवाइयों में, तो कभी सिर्फ साथ बैठकर उनकी चिंता सुनकर।
एक दिन बस्ती में आग लग गई। लोग चीखते-चिल्लाते भागने लगे। देवांश ने बिना सोचे-समझे खुद को आग की ओर झोंक दिया। कई बच्चों को उसने बाहर निकाला और कई परिवारों को सुरक्षित जगह पहुँचाया। उसकी हिम्मत की वजह से बहुत-सी जानें बच गईं। लोग उसकी तारीफ करने लगे, पर देवांश ने सिर्फ इतना कहा— “इंसानियत का यही समय होता है जब दिल अपने डर पर जीत पाए।”
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
नगर में एक धनी व्यापारी रहता था, जिसका नाम त्रिकाल था। बाहरी रूप से वह दानवीर और उदार कहलाता था, पर वास्तव में अहंकारी और स्वार्थी था। उसे देवांश का लोगों में बढ़ता सम्मान खटक रहा था। उसे लगता था कि एक साधारण युवक उससे अधिक प्रिय क्यों हो रहा है।
एक दिन त्रिकाल ने नगर में यह घोषणा करवाई कि वह गरीबों की सहायता के लिए एक बड़ा अनुदान देगा और अपने मकान में एक समारोह आयोजित करेगा। सभी लोग उस संदिग्ध दान में शामिल होने पहुंचे। देवांश भी गया, लेकिन वह लोगों को लेकर ही जाता था ताकि वे अपनी समस्याएँ सीधे बता सकें।
समारोह के बीच त्रिकाल ने कहा, “यदि किसी में इंसानियत है, तो वह मेरे सामने अपने त्याग का प्रमाण दे।”
लोग चुप रहे, क्योंकि वे जानते थे कि यह किसी परीक्षा से अधिक एक दिखावा था।
लेकिन तभी देवांश आगे आया और बोला, “सच्ची इंसानियत को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, पर अगर आपके लिए प्रमाण इतना जरूरी है, तो मैं बताता हूँ—इंसानियत दूसरों को छोटा दिखाकर नहीं, बल्कि उन्हें अपने बराबर खड़ा करके निभती है।”
उसके शब्दों ने वहाँ उपस्थित लोगों के दिलों को झकझोर दिया। त्रिकाल को यह अपमान लगा और उसने देवांश पर आरोप लगाया कि वह उसका सम्मान गिरा रहा है। उसने अपने गार्डों को देवांश को पकड़ने का आदेश दिया। लेकिन तभी बस्ती के मजदूर, स्त्रियाँ, बच्चे और नगर के नागरिक उसकी रक्षा में न सिर्फ आगे आए, बल्कि दृढ़ होकर बोले—
“देवांश वह है जिसने हमें जीना सिखाया है। हमारे लिए यही इंसानियत की असली पहचान है।”
त्रिकाल अब अकेला पड़ चुका था। उसे पहली बार समझ आया कि धन का अहंकार इंसानियत के सामने कितना छोटा पड़ जाता है। उसने देवांश से क्षमा माँगी और सच्चे मन से अपना व्यवहार बदलने का संकल्प लिया।
कहानी समाप्त कर बेताल बोला, “राजन, अब बताओ—देवांश की कौन-सी बात उसे इंसानियत की असली पहचान बनाती है? उसके त्याग, उसके साहस या उसके शब्द?”
विक्रम ने बिना झिझक उत्तर दिया, “देवांश की इंसानियत किसी एक गुण में नहीं, उसके संपूर्ण आचरण में थी। त्याग था तो साहस भी, और शब्दों में विनम्रता भी। उसने लोगों की मदद बिना दिखावे के की। इंसानियत वहीं है जहाँ बिना स्वार्थ के किसी का दर्द बाँटा जाए। यही उसकी पहचान है।”
बेताल हँस पड़ा, “राजन, तुमने फिर उत्तर दे दिया। अब मैं वापस जा रहा हूँ।” और वह हवा में उड़ता हुआ पेड़ पर लौट गया।
विक्रम ने सिर उठाया और फिर उसी दृढ़ संकल्प के साथ उसकी ओर बढ़ चले, क्योंकि उनकी परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी।