विक्रम और बेताल: बुद्धि बनाम शक्ति
रात का गहरा अँधेरा था, हवा में ठंडक और पेड़ों की शाखाओं से आती अजीब सरसराहट मानो किसी अनहोनी का संकेत हो। राजा विक्रम अपनी तलवार कमर से बाँधे, दृढ़ कदमों से उसी पुराने मार्ग पर चल रहे थे, जहाँ उन्हें फिर से बेताल को लाना था। वे जानते थे कि यह कार्य कठिन, थकाने वाला और दिमाग़ की परीक्षा लेने वाला है, लेकिन उनका अडिग संकल्प आज भी पहले जैसा ही था। वे मौन और स्थिर थे, क्योंकि उन्हें गहन ज्ञान का बोझ और राज्य की जिम्मेदारियों का एहसास हमेशा साथ रहता था।
जंगल की पगडंडी पर लंबी यात्रा के बाद अंततः विक्रम उस पेड़ तक पहुँचे जहाँ बेताल उल्टा लटका हुआ था, मानो किसी रहस्य का अदृश्य संरक्षक हो। बिना किसी डर, बिना किसी संदेह, राजा ने बेताल को अपने कंधों पर रखा और वापस चल पड़े। जैसे ही वे आगे बढ़े, बेताल ने कहा, “राजन, तुम जानते हो कि मैं तुमसे अलग नहीं रह सकता जब तक तुम बोलते नहीं, लेकिन मैं कहानी सुनाए बिना चुप भी नहीं रह सकता। सुनोगे तो मैं उड़ जाऊँगा, नहीं सुनोगे तो यात्रा असहनीय होगी। अत: मैं कहानी सुनाऊँगा, पर अंत में उत्तर देना या न देना तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर है।”
विक्रम सहमति में चुपचाप आगे बढ़ते रहे। बेताल ने कथा आरंभ की —
एक समय की बात है, विशाल पर्वतों, नीले सरोवरों और घने जंगलों से घिरे एक समृद्ध राज्य का नाम था कौशलनगर। इस राज्य के राजा यशकेतु अपने साहस, पराक्रम और युद्ध विजय के कारण प्रसिद्ध थे। उनकी शक्ति इतनी थी कि पड़ोसी राजाओं का नाम सुनकर ही शत्रु कांप उठते। लेकिन जितनी असीम शक्ति राजा के पास थी, उतना गहन ज्ञान और विवेक उनके स्वभाव में नहीं था। वे मानते थे कि संसार में सबसे बड़ा अस्त्र शक्ति है, और जिसे शक्ति प्राप्त है वही सर्वोत्तम और सर्वोपरि है।
इसी राज्य में एक अति बुद्धिमान, विनम्र और मौन साधक युवक रहता था, जिसका नाम था प्रबोधन। वह बाल्यकाल से ही शिक्षा, ध्यान, संयम और सत्य का मार्ग अपनाने वाला था। वह अपने ज्ञान को दिखावा न बनाकर, सेवा का माध्यम मानता था। उसकी बुद्धि ऐसी थी कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान कुछ ही शब्दों में निकल आता। नगर के लोग उसकी सूझबूझ पर विश्वास करते और उससे मार्गदर्शन लेते। धीरे-धीरे उसकी ख्याति राजा यशकेतु तक पहुँच गई।
एक दिन राजा ने उसे राजसभा में बुलाया। प्रबोधन शांत स्वभाव से आया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। राजा बोले, “सुना है कि तुम अत्यंत बुद्धिमान हो, लेकिन मैं यह मानता हूँ कि बुद्धि से अधिक शक्ति सर्वोच्च है। तुम क्या कहते हो?”
प्रबोधन ने सहज भाव से उत्तर दिया, “महाराज, शक्ति का अपना स्थान है, परंतु शक्ति का संचालन बुद्धि द्वारा ही संभव है। यदि बुद्धि न हो, तो शक्ति विध्वंस बन जाती है।”
राजा इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा, “मैं इसे प्रमाण से जानना चाहता हूँ, न केवल शब्दों से। तुम्हें सिद्ध करके दिखाना होगा।”
राजा ने आदेश दिया कि अगले ही दिन दोनों के बीच एक गूढ़ प्रतियोगिता होगी, जिसके परिणाम से यह तय होगा कि कौन श्रेष्ठ — बुद्धि या शक्ति। पूरे राज्य में इस चुनौती की चर्चा फैल गई। सैनिक, मंत्री, विद्वान, आमजन सभी दिन गिनने लगे।
प्रतियोगिता का पहला चरण एक विशाल वज्रद्वार को तोड़ने का था। उसमें इतना भारी ताला लगा था कि उसे पाँच सैनिक मिलकर भी नहीं हिला सकते थे। राजा ने गर्व से आगे बढ़कर अपनी पूरी ताकत लगाई और द्वार को क्षतिग्रस्त कर दिया। जयघोष होने लगा। लोग बोले, “महाराज की शक्ति अद्वितीय है।”
अब प्रबोधन की बारी थी। वह आगे आया, द्वार को ध्यान से देखा, उसके जोड़, उसकी पकड़ और कुंजी छेद पर ध्यान केंद्रित किया, कमर से एक पतली लोहे की पिन निकाली और कुछ ही क्षणों में द्वार खोल दिया। पूरा दरबार निःशब्द रह गया।
राजा को अस्वीकार न था कि द्वार खुल गया, लेकिन वे बोले, “यह केवल संयोग है, बुद्धिमानी नहीं।”
दूसरा चरण और अधिक कठिन था। इस बार शर्त थी कि एक भयंकर जंगली हाथी को बिना हथियार और बिना बल प्रयोग के नियंत्रित करना होगा। राजा ने गर्व से आगे बढ़कर आदेश दिया कि हाथी को मजबूर किया जाए। लेकिन हाथी और अधिक क्रोधित हो गया, उसने सैनिकों को चोट पहुँचा दी।
अब प्रबोधन आगे आया। उसने हाथी की आँखों में देखा, शांत स्वर में मंत्रोच्चार किया, उसके सामने भोजन रखा और धीरे-धीरे उसके भय को शांत किया। कुछ ही मिनटों में हाथी उसके पास शांतिपूर्वक बैठ गया। जनता ने पहली बार बुद्धि की प्रभावशीलता को अनुभव किया, लेकिन राजा के भीतर ईर्ष्या का धुआँ उठने लगा।
तीसरा और अंतिम चरण सबसे अनोखा था। राजा को और प्रबोधन को एक ऐसी भूलभुलैया में भेजा गया जहाँ से निकलने के दो ही मार्ग थे —
एक मार्ग जीवन की ओर
एक मार्ग मृत्यु की ओर
मार्गों पर कोई संकेत, कोई पहरेदार, कोई आवाज़ नहीं। केवल अंधेरा, रहस्य और मौन।
राजा गर्व से सबसे बड़े रास्ते पर आगे बढ़ गए, सोचते हुए कि श्रेष्ठ मार्ग वही होता है जो विशाल होता है।
प्रबोधन कुछ देर रुका, ध्यान से भूमि की नमी, दीवार की गंध और हवा की दिशा को महसूस किया। उसने महसूस किया कि हवा केवल एक संकीर्ण मार्ग से भीतर आ रही है। वह उसी छोटे, अनदेखे रास्ते से आगे बढ़ा।
कुछ ही देर बाद राजा चीख पड़े — क्योंकि उनका चुना हुआ मार्ग एक गहरी अंधी खाई की ओर था।
प्रबोधन ने राजा को समय रहते बाहर निकाला। राजा की शक्ति विपत्ति से लड़ नहीं सकी, लेकिन प्रबोधन की बुद्धि ने जीवन बचाया।
राजा का अहंकार टूट चुका था। उन्होंने सभा के सामने घोषणा की —
“शक्ति बिना बुद्धि, अग्नि बिना नियंत्रण के समान है। जो राज्यकर्ता केवल बल पर भरोसा करता है, वह स्वयं और अपने प्रजा दोनों को संकट में डाल देता है। अतः सच्चा राजा वही है जो पहले बुद्धिमानी से निर्णय ले और फिर शक्ति का उपयोग करे।”
राज्य ने प्रबोधन को राजगुरु बनाया और यशकेतु ने उसके चरणों में बैठकर उसे गुरु माना। राज्य पुनः सुशासन, शांति और समृद्धि से भर गया।
कहानी समाप्त करते हुए बेताल ने पूछा —
“राजन, बताओ — इस कथा में कौन अधिक महान है? बुद्धि या शक्ति? और क्यों?”
राजा विक्रम ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया,
“श्रेष्ठ वही है जिसकी उपयोगिता संकट में जीवन की रक्षा करे, न कि विनाश का कारण बने। अतः बुद्धि, शक्ति से कहीं अधिक महान है, क्योंकि शक्ति तभी कल्याणकारी है जब उसे बुद्धि मार्गदर्शन दे।”
बेताल हँसा और बोला,
“राजन, तुम्हारी अद्वितीय बुद्धि और सत्य का निर्णय हमेशा श्रेष्ठ रहा है — इसलिए तुम ही इस कार्य के योग्य हो।”
कहकर वह फिर उड़ गया, और विक्रम पुनः उसे पकड़ने के लिए उसी संकल्प के साथ आगे बढ़ गए।