संत त्यागराज की कथा
संत त्यागराज का जन्म 4 मई 1767 को तमिलनाडु के तंजावुर के समीप तिरुवैय्यारु में एक सरल और धर्मनिष्ठ तेलुगु स्मार्त ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका कुल प्राचीन समय में आंध्र प्रदेश से तमिलनाडु आकर बस गया था। उनके पिता राम ब्रह्मम और माता सीतम्मा अत्यन्त श्रद्धालु थे, और घर में वैदिक परम्परा तथा भगवान राम के नाम का निरन्तर उच्चारण होता था।
बालक त्यागराज बचपन से ही शांत, विनम्र और ईश्वर-रस में डूबा रहने वाला स्वभाव रखते थे। उनके पिता ने उन्हें राम तारक मंत्र की दीक्षा दी, जिसने उनके हृदय पर अमिट प्रभाव डाला। बाल्यकाल से ही वे स्तुतिगान रचने लगे और उनका प्रथम गीत नमो नमो राघवय्या माना जाता है, जिसमें उनकी निर्मल भक्ति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।
अठारह वर्ष की आयु में उनका विवाह पार्वतम्मा से हुआ। यह गृहस्थ जीवन अधिक समय तक न चल पाया क्योंकि पाँच वर्ष में ही पार्वतम्मा का देहांत हो गया। इस दुःख के बाद त्यागराज ने पार्वतम्मा की बहन कमलाम्बा से विवाह किया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या प्राप्त हुई, जिसका नाम सीतामहालक्ष्मी रखा गया। सीतामहालक्ष्मी का एक पुत्र भी हुआ, परन्तु उसके आगे कोई संतान नहीं हुई और इस प्रकार संत त्यागराज का वंश आगे न बढ़ सका।
त्यागराज के जीवन का अधिकांश भाग साधना, भजन और संगीत की साधना में व्यतीत हुआ। उन्होंने भगवान श्रीराम की स्तुति में आठ सौ से अधिक कृतियाँ रचीं और कर्नाटक संगीत को दिव्य रूप प्रदान किया। उनके संगीतगुरु सोंटी वेंकटरमय्या थे, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उसे निखारा।
त्यागराज की भक्ति इतनी दृढ़ थी कि वे किसी मनुष्य के लिए गाना नहीं चाहते थे। तंजावुर के शासक सरभोजी द्वितीय ने उन्हें राजविद्वान का सम्मान दिया और उनके समक्ष गाने का आग्रह किया, किन्तु त्यागराज ने विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया। उनका मत था कि उनका गायन केवल भगवान श्रीराम के चरणों के लिए है, किसी अन्य के लिए नहीं।
सन् 1804 में उनकी माता का देहांत हुआ और इस घटना ने त्यागराज के मन को अत्यन्त दुखी कर दिया। आगे चलकर उनके ही बड़े भाई ने क्रोधवश उनकी प्रिय राममूर्ति को कावेरी नदी में फेंक दिया। यह घटना उनके लिए अत्यन्त पीड़ादायक सिद्ध हुई। इस दुःख काल में उन्होंने ईश्वर-स्मरण को ही जीवन का आधार बना लिया और कहा जाता है कि एक ही वर्ष में उन्होंने षडाक्षर राम मंत्र का छियानवे करोड़ बार जप किया। साधना और भक्ति उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गए।
सन् 1839 में वे पैदल ही तिरुमला तिरुपति के दर्शन के लिए गए। वृद्धावस्था में भी उनका उत्साह और भक्ति का भाव पहले जैसा ही था। अन्ततः 1847 में उन्होंने देह त्याग किया और उनके दिव्य जीवन का अंत हुआ।
त्यागराज नाम का अर्थ त्याग का राजा होता है और उन्होंने वास्तव में संसार की प्रतिष्ठा, वैभव और राजसम्मान का त्याग किया, परंतु भक्ति के मार्ग से कभी नहीं हटे। आज भी जो कोई उनकी कृतियाँ गाता है, वह उनके आशीर्वाद और उनकी साधना की छाया को अनुभव करता है। तिरुवैय्यारु में प्रतिवर्ष पुष्य मास की बहुला पंचमी को त्यागराज आराधना उत्सव मनाया जाता है, जहाँ उनके गीतों का सामूहिक संकीर्तन होता है।
शिक्षा: सच्ची साधना और अटूट भक्ति मनुष्य को दिव्य मार्ग पर अग्रसर करती है।